Monday, July 02, 2007

मिनिआपोलिस की हमारी यात्रा

Inside Mall of America

अमेरिकन सोसाइटी ऑफ़ एग्रिकल्चरल ऎंड बायोलोजिकल इंजीनीयर्स (ASABE) की वार्षिक संगोष्ठी इस बार मिनिआपोलिस में आयोजित की गयी थी। इस बार संगोष्ठी में हम भी अपने शोध का हिस्सा प्रस्तुत करने गए the। मिनिआपोलिस भी एक बड़ा शहर है। सैंट पॉल के साथ इन दोनो शहरों को ट्विन सिटीज़ भी कहा जाता है।

ब्लैक्स्बर्ग से १८ घंटा गाड़ी चलाकर यानी करीब १००० मील, हम शनिवार कि रात मिनिआपोलिस से सटे ब्लूमिन्गटन में पहुंचे। उसके बाद चार दिन संगोष्ठी में कैसे बीत गए पता नहीं चला। इस बीच कई पुराने मित्रों से मिलना भी हुआ। इलाहबाद कृषी संस्थान से पढ़े हुए लोगों की एक येक मीटिंग भी आयोजित
थी। खाने पीने के अलावा इस बात पर भी विचार विमर्श किया गया कि कि अपने संस्थान को किस प्रकार सहयोग दे सकते हैं।

मिनिआपोलिस में कई भारतीय रेस्त्रां हैं, और ये खाने पीने के लिए बढ़िया जगह है। मुख्य शहर या डाउनटाउन काफी खूबसूरत है। डाउनटाउन की सारी इमारतें एक दूसरे से स्काईवे के द्वारा जुड़ी हुईं हैं। यानि आप बाहर निकले बिना किसी भी इमारत से किसी भी इमारत में जा सकते हैं। एसा इसलिए है, क्यूँकि सर्दियों में यहाँ न्यूनतम तापमान आसानी से शून्य से ३० डिग्री नीचे चला जाता है, और तब पैदल चल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।

मिनेसोटा राज्य जिसकी राजधानी मिनिआपोलिस है को झीलों का राज्य भी कहा जाता है, क्यूंकि यहाँ करीब १०००० झीलें हैं। मिनिअपोलिस के आस पास भी कई झीलें हैं, जिनको उनकी प्राकृतिक अवस्था में रखने का प्रयास किया जाता है। इसलिये भरे पूरे शहर से सटी हुई झीलें एकदम अलग ही दुनिया में ले जाती हैं।
In the Luncheon at the ConferenceInside Sculptor Garden


मिनिआपोलिस में अमरीका का सबसे बड़ा शॉपिंग मॉल भी है। इस मॉल के अन्दर एक एक्वेरियम है, एक थीम पार्क है, और सैकड़ों दुकानें तो खैर है ही। इस मॉल में भी हमने काफी समय बताया। संगोष्ठी के अन्तिम दिन हमारा अंत में प्रस्तुतीकरण था। अब चूंकि अगले दिन सबेरे ४ बजे निकलना था ब्लैक्स्बर्ग के लिए, इसलिये अन्तिम रात को जल्दी ही सुत गए। रास्ते में समय पास करने के लिए गाड़ी में कई खेल खेले, और ४ जुलाई को बजाने के लिए ख़ूब सारे पटाखे भी खरीदे।


थोड़ी बहुत कहानी ये तसवीरें बता देंगी। अब अगली यात्रा बहुत जल्दी ही सैन फ़्रांसिस्को की है। पिछली बार जो जगहें ठीक से नहीं देख पाए थे, उनके बारे में बताएँगे। और हाँ इस बार कैमरा नहीं भूलूंगा।

राग

Sunday, June 10, 2007

पूरी बांह या आधी बांह?

दरजी की दुकान पर ये बात सुनने में अच्छी लग सकती है, मगर सोचिये अगर कोई आपका हाथ काटने से पहले ये सवाल करे तो?

कुछ दिन पहले ब्लड डायमंड देखी। सिएरा लिओन के गृह युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी ये फिल्म अगर आपने नहीं देखी तो आपको ज़रूर देखनी चाहिऐ। हीरे के पीछे की राजनीति, इस राजनीति का नतीजा गृह युद्ध, इस गृह युद्ध में फंसा पूरा देश, इस सब के बीच में पिसते लोग और उनके छोटे छोटे सपने, एक स्थानीय सेना द्वारा लोगों के हाथ काटना ताकि वो वोट ना दे पाएं। काफी उद्वेलित करती है ये फिल्म। हीरे के पीछे की हमारे मानसिकता को कितना छोटा साबित कर देती है।



एक और फिल्म देखी हाल में वो थी होटल रवांडा। तुत्सी और हुतु जातियों के बीच हो रहे गृह युद्ध की पृष्ठभूमि में बनी ये फिल्म आपको इन्सान होने पर शर्मसार कर देगी। कितना भी कड़ा दिल कर लीजिये, फिल्म देख कर आंसू तो आने ही हैं। एक दृश्य है फिल्म का जिसमें फिल्म का मुख्य किरदार पॉल सबेरे सबेरे धुंध में गाड़ी से आ रह था। अचानक गाड़ी झटके खाने लगी तो पॉल नीचे उतर कर देखता है की सारी सड़क पर लाशें बिछी हैं जिनपर गाड़ी झटके खा रही थी। एक और दृश्य है जिसमें पॉल अपनी बीवी को छत पर बडे प्यार से डिनर के लिए बुलाता है और फिर उसे बड़े प्यार से समझाता है की अगर उपद्रवी होटल में आ गए तो उसे किस तरह से छत से कूद कर जान देनी होगी।

दस लाख से ऊपर लोगों की मौत और इससे ज्यादा लोगों का विस्थापन, ये था नतीजा इस गृह युद्ध का।





बार बार यही सोच रहा था की इन्सान आख़िर क्या चाहता है? है अगर सच देखने की हिम्मत तो ज़रूर देखियेगा इन दोनों फिल्मों को।

राग

मेरी कुछ पसंदीदा फिल्मों की सूची यह देखिए

Saturday, June 02, 2007

हम अपनेआप को क्या समझते हैं?

अभी थोड़ी देर पहले रवि रतलामी जीं के चिट्ठे पर ये विषय पढ़ा जिसमें लेखक हमसे ये पूछ रहे हैं कि हमें किस बात का घमंड है? बहुत सोचा, बहुत सोचा पर कुछ खास समझ नहीं आया तो स्वदेस फिल्म का यू ट्यूब से विडिओ खोजा। मूवी तो आपने देखी ही होगी मगर ये दृश्य बढ़िया रहेगा, याद ताज़ा करने के लिए। मेरे ख़याल से ये दृश्य इस फिल्म का मुख्य दृश्य था। आपने फिल्म देखी हो या ना देखी हो पर इस विडिओ के शुरू के पांच मिनट ज़रूर देखिए। शायद रवि जीं के चिट्ठे पर पूछे गए सवाल का जवाब भी मिल जाये।



अभी आज सुबह किसी को भारत में फ़ोन किया, तो उन्होने बताया कि उनका दिल्ली जाने का कार्यक्रम रद्द हो गया है, क्यूंकि माहौल खराब है, गुर्जरों के विरोध के कारण। मैंने उनसे कहा कि हिंदुस्तान में सब बौरा गए हैं क्या कि कोई भी समस्या हो, सब राशनपानी लेकर सड़क पर उतर जाते हैं और तोड़ फोड़ चालू हो जाती है। उन्होंने जवाब में कहा कि ये तो सब जगह है अब अमेरिका में ही किसी ने धमकी दी है कि वो ९/११ वाले आक्रमण से कुछ बड़ा करेगा और वर्जीनिया टेक में हुई घटना से कुछ बड़ा करेगा। और जो ये सब करेगा वो एक अमेरिकी ही है। उन्होने कहा कि भारत में तो यह समाचार में ख़ूब आ भी रहा है।

मुझे लगा कि जिस खबर कि अमेरिका में कुछ खास क़दर नहीं है, उसे भारत में क्यूँकर लगातार दिखाया जा रहा है पता नहीं (वैसे ये कुछ दिन पुरानी खबर है)। और इसके अलावा ये कि इस बात का मेरी कही बात का इस बात से क्या संबंध है? किस बात का हमें घमंड है हमें जो हम अपनी कमियाँ नहीं स्वीकार करते या करना चाहते?

राग

हम अपना दरवाज़ा बंद कर लें और तुम अपना

किसी हिंदु मंदिर में अब ग़ैर हिंदुओं का आना मना कर दिया गया है असम में हिंदी भाषियों का रहना मुहाल हो रहा है। कभी कभी महाराष्ट्र में दूसरे राज्य वालों को निकालने कि बात आती है, ब्रिटेन में इतने सालों से बसें डॉक्टरों के अब वहाँ बसे रहने में समस्या शुरू कर दी गयी है।

जाने अब हम खुद को क्या समझने लगे हैं?

मनुष्य तो प्रकृति से ही यायावर है। यही कारण है कि इतने तरह के लोग दुनिया भर में बसें हैं। एक वृत्तचित्र देख रहा था जर्नी ऑफ़ मैनअब ये वृत्तचित्र मुख्यतः एक शोध है जो ये बताने का प्रयास करता है कि किस प्रकार मनुष्य कि शुरू की प्रजातियाँ अफ्रीका से दुनिया के और हिस्सों में फैली। इस वृत्तचित्र का पहला हिस्सा यू ट्यूब से यहाँ दिखाया है, बाक़ी के सारे हिस्से यू ट्यूब पर ही उपलब्ध हैं।



इन्सान का इस प्रकार घूमना या यायावर होना ही उसकी प्रजाति के सफल होने का कारण रहा है। यद्यपि अब हमारे पास लाजवाब तकनीकें आ गयी हैं यात्रा करने के लिए और कहने को धरती छोटी हो गयी है, लेकिन हमारा दिमाग उससे भी ज्यादा छोटा हो गया है। देश की सीमायें बना के हमने लोगों के रहने और बसने की सीमायें तो निर्धारित कर दीं हैं, लेकिन हमारा सोच का छोटा होना उससे भी नहीं रुका। अब हम लोगों को अपने राज्य में नहीं घुसने देना चाहते, मोहल्ले में नहीं घुसने देना चाहते, अपने मंदिर और मस्जिद में नहीं घुसने देना चाहते।

जाने क्या लगता है ऐसे सीमायें बनने वालों को? क्या पृथ्वी के उत्थान से हिंदु, मुसलमान या कोई और धर्म था? ये देश और राज्य की सीमायें हज़ारों लाखों साल से क्या ऐसी ही हैं? ये सब सीमायें हमारे जैसे इंसानों की ही बनाई गयी हैं और हम ही इसे बदल भी सकते हैं। धर्म से इसलिये भी मुझे नफरत हैं क्यूंकि ये बताता है की एक इन्सान दूसरे से अलग क्यों और कैसे है, इस बारे में पहले एक बार मैं यहाँ लिख चुका हूँ

जब तक ये मूर्खतापूर्ण बातें आम लोगों के दिलों में सीमा ना बनायें तब तक तो अच्छा है, लेकिन दुर्भाग्य की, ऎसी छोटी बातें धीरे धीरे आम लोगों के दिलों में भी दीवार बना लेती हैं....

राग

Sunday, May 27, 2007

स्पाइडरमैन - ३ देख ली

वैसे देखे हुए तो करीब अब एक हफ्ता हो ही गया। बढ़िया फिल्म है। अब स्पाइडरमैन की फिल्म में एक्शन, स्टंट, और बेहतरीन प्रभाव तो होते ही हैं, लेकिन इसके अलावा भी कहानी में एक खास बात होती है जो आपको बाँध कर रखती है। स्पाइडरमैन श्रंखला कि मैंने तीनों फिल्में देखीं है और कई कई बार देखी हैं।

जहाँ तक कहानी का सवाल है स्पाइडरमैन-३ कि कहानी ये बताती है की सबसे बड़ा संघर्ष इन्सान के खुद के दिल में होता है। बदले कि भावना, असीम ताक़त, और गुरूर इन्सान को भ्रष्ट बना सकता है, चाहे वो स्पाइडरमैन ही क्यों ना हो। और मदद की ज़रूरत भी सबको होती है, फिर चाहे हो स्पाइडरमैन ही क्यों ना हो। दूसरों के नज़रिये को समझना चाहिऐ और इसे समझने के लिए समय भी देना चाहिऐ।



मूवी के अपने कुछ खास पल हैं। पीटर पार्कर और मैरी जेन का मकड़ी के जाल पर बैठ कर बातें और प्यार करने का दृश्य बड़ा ही खूबसूरत बना है। एक बहुत ही महत्वपूर्ण दृश्य तब है जब पीटर पार्कर अपनी आंटी से कहता है की वो मैरी से शादी करने के लिए कहेगा। इस समय बाक़ी बातों के अलावा पीटर कि आंटी उसे बताती है की शादी से पहले इस बात का वादा करो कि खुद से आगे हमेशा अपनी पत्नी को रखोगे। और ये भी की लड़कियों से शादी के लिए पूछना उनके लिए एक बहुत खास पल होता है, और इसको जितना खूबसूरत बना सको, बनाना। अब मैं पीटर कि आंटी के सारे उदगार बता दूंगा तो आपका मूवी का मज़ा खराब हो जाएगा।

स्पाइडरमैन-३ ज़रूर देखिए क्यूंकि इसमें स्पाइडरमैन है, खूबसूरत मैरी जेन है, बेहतरीन स्टंट, और एक्शन है, लेकिन इससे भी बड़ी बात है आपको बाँध के रखने वाली कहानी।

राग

Monday, May 21, 2007

सैन फ्रांसिस्को की हमारी ताज़ा यात्रा

अमरीका में रहते हुये अब ५ साल से ऊपर हो गए मगर पश्चिम में जाने का मौका हमें अब मिला। यूँ तो यात्रा करीब ४ दिन की थी, मगर दौड़ भागी में ही समय निकल गया और पर्यटन कम हो पाया। लेकिन हर नयी जगह का अपना अनुभव अलग ही होता है। सबसे बड़ी गलती ये कि हम जाते वक्त अपना कैमरा भूल गए, अब इस पर कितनी डांट खायी, ये बात फिर कभी।

वैसे अगर न्यू यॉर्क और सैन फ्रांसिस्को में तुलना की जाये तो सैन फ्रांसिस्को कि यात्रा अपनेआप में काफी सरल थी। सबसे पहली जो चीज़ दिखी वो थी सैन फ्रांसिस्को का बहुत ही बड़ा एअरपोर्ट। हवाई जहाज से उतरने से लेकर कार रेंटल तक पहुचने में २० से २५ मिनट लगे, जिसमें थोड़ी सी ट्रेन यात्रा, काफी लिफ्ट्स, और कई एस्केलेटर्स से होकर गुज़रना पड़ा। अब हमारे जैसा लापरवाह आदमी चवन्नियां लेकर भी नहीं चला था की एक अदद कार्ट मिल जाती, सो एक बैग लाद कर और दो घसीट कर पूरा रास्ता चलाना पड़ा।

कार रेंटल में करीब आधा घंटा लंबी लाईन में इंतज़ार और करना पड़ा। खैर उन लोगों ने मुफ़्त का मानचित्र दे दिया सैन फ्रांसिस्को का, न्यू यॉर्क कि तरह नहीं सैन फ्रांसिस्को में लोग काफी तमीज से गाड़ी चलते हैं, इसलिये हमें ज्यादा दिक्कत नहीं हुई वहाँ, या फिर हम पुराने धुरंदर थे। खैर मुख्य शहर में हमारे होटल कि अपनी पार्किंग व्यवस्था नहीं थी, सो कुछ घंटों के लिए गाड़ी पार्क करने का ही १८ डॉलर देना पड़ा, रात भर वहीँ टिकाते गाड़ी तो होटल से ज्यादा खर्च पार्किंग का आ जाता उसके बाद से जाने कहाँ कहाँ खोज खोज कर गाड़ी मुफ़्त पार्किंग में लगायी।

सैन फ़्रांसिस्को एक खूबसूरत और बड़ा शहर है। जाहिर है कि कैमरा नहीं था इसलिये तसवीरें नहीं खींची मगर कैमरा फ़ोन से ये कुछ तसवीरें लीं है ट्रेज़र आइलैंड के पास। मौसम वहाँ का बड़ा अजीब लगा। हमेशा हवा चलती रहती है, और वो भी ठण्डी। मई के महिने में जैकेट पहन कर घूमना पड़ता था।



एक खास बात जो देखी सैन फ़्रांसिस्को में वो ये कि वहाँ के लोग पर्यावरण के प्रति बाक़ी जगहों से जागरूक लगे। कूड़ा रिसाईकल करने के लिए सब जगह सुविधाएं थीं। अधिकतर लोग सी ऍफ़ एल बल्ब का प्रयोग करते हैं। यहाँ तक कि विशालकाय सैन फ़्रांसिस्को पुल पर भी सी ऍफ़ एल बल्ब लगे थे।

सैन फ़्रांसिस्को से कई छोटे शहर भी जुड़े हुए हैं, जैसे कि फ्रेमोंट, जहाँ काफी भारतीय रहते हैं। फ्रेमोंट इतना खूबसूरत है, जैसे जन्नत, बिना किसी अतिशयोक्ति। फिर से तस्वीरों कि कमी खल रही है। वहाँ एक भारतीय-पाकिस्तानी भोजनालय में ख़ूब खाना खाया। गजब का सस्ता खाना, और बड़ा स्वादिष्ट। शाम को खाने के समय ऐसे भीड़ देखने को मिलती कि लगता कोई अपने घर में खाना बनाना ही नहीं चाहता। लोग फ़ोन से आर्डर करके फिर खाना लेके भी जाते थे। सफाई के बारे में ज्यादा कुछ खास नहीं कहा जा सकता, लेकिन जहाँ इतना खाना बनता हो वहाँ ठीक ही होगा ;)। मगर जाने क्यों भारतीय दुकानों के शौचालय कहीँ साफ क्यों नहीं मिलते? कहना मुश्किल है मगर क्या ये हमारा राष्ट्रीय चरित्र दिखाता है? एक दो भारतीय कपड़ों की दुकान भी दिखी, पर जाने क्यों महिलाओं के भारतीय कपड़े अमरीका में बड़े ही बेकार मिलते हैं (हमारी धर्म पत्नी के अनुसार)।

जैसा हमने पहले कहा है सैन फ़्रांसिस्को में मानचित्र आसानी से मिल जाते हैं, लेकिन यहाँ अमेरिका के बाक़ी शहरों की तरह हर हाईवे एग्जिट की संख्या नहीं होती, जिससे कई बार धोखा हो सकता है कहीँ पहुंचने में, इसलिये गाड़ी चलते वक़्त ज्यादा ध्यान देना पड़ता है। खैर अब हमारा सैन फ़्रांसिस्को कई बार आना जाना होता रहेगा तो तस्वीरों की कमी भी जल्दी पूरी कर देंगे।

राग

Sunday, May 06, 2007

सभी चिट्ठाकारों से विनती

कृपया अपने लेख जस्टिफाई ना किया करें। फायरफॉक्स में नहीं पढ़ा जाता। मुझे मालूम है कि एक एड ऑन से इस समस्या को दूर किया जा सकता है, लेकिन तीन चार चिट्ठों के लिए एसा करना मुझे नहीं ठीक लगता। वैसे भी मैं अपने फायरफॉक्स में कम से कम एक्सटेंशन रखना चाहता हूँ, ताकि वो जल्दी चालू हो सके।

इसके अलावा हमारा ये प्रयास होना चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा लोग हमारे चिट्ठे कम से कम परेशानियों से पढ़ं सकें। हिन्दी पढ़ने लायक कम्प्यूटर को बनाना ही अपने आप में एक बहुत बड़ा तकनीकी अवरोधक हो जाता है, और उसे दूर करना ही काफी होना चाहिए। इसके अलावा हम लोग हमेशा एक कम्प्यूटर पर तो बैठते नहीं, और हर कम्प्यूटर की सेटिंग कौन बदले?

अनुराग

Sunday, April 29, 2007

वर्जीनिया टेक की घटना और मेरे अनुभव-2

मैंने अपनी पिछली पोस्ट में वर्जीनिया टेक में हुई घटना से सम्बंधित अपने कुछ अनुभव आपसे बांटे थे। इन कई अनुभवों में से एक अनुभव था मीडिया से।

जितना मीडिया वर्जीनिया टेक में इकट्ठा हुआ था उतना जिंदगी में कभी नहीं देखा और ना देखने की इच्छा ही है। खैर समाचार देने के लिए तो लगातार प्रेस कॉन्फेरेन्स हो रही थी, मगर रिपोर्टरों को समाचार तो मालूम हो ही चुका था, अब उनको टीवी चैनल पर दिखाने के लिए कुछ भावनाएं चाहिऐ थीं। अब भावनाएं बटोरने के लिए उन्हें छात्रों से बात करनी थी, और अगर छात्र ने ये घटना खुद आंखों से देखी हो या उसका कोई सगा इस घटना में मारा गया हो तो बात ही क्या।

जिनके अच्छे जानने वालों कि इस घटना में मृत्यु हुई थी उसमें एक हम भी थे। लिहाज़ा रिपोर्टरों ने हमें खोज ही लिया। वैसे तो रोक रोक कर कुछ और रिपोर्टर भी सवाल करते थे, लेकिन कुछ खास अनुभवों कि बानगी देखिए।

१ घटना के दूसरे दिन (मंगलवार) मैं डॉ॰ लोगानाथान के घर फिर गया करीब ११ बजे सबेरे। मैंने डॉ॰ लोगानाथान कि पुत्री से बात भी की। वहाँ पता चला कि सबेरे ७ बजे से रिपोर्टर वहाँ दरवाजे पर जमा थे श्रीमती लोगानाथान से बात करने के लिए। उन लोगों को जबरदस्ती वहाँ से भगाया गया था।

२ घटना के दूसरे दिन वर्जीनिया टेक के लगभग सभी छात्र और शहर के बाक़ी लोग एक सभा में जा रहे थे। कई रिपोर्टर भी जोरदार रिकार्डिंग करने के लिए कैमरा सेट कर रहे थे। दो रिपोर्टर आस पास में कहते पाए गए कि इस जगह पर तो कोई रो नहीं रहा, चलो आगे देखते हैं।

३ स्टेडियम में चल रही सभा के बीच में एक रिपोर्टर आयी और मुझसे साक्षात्कार के लिए कहा, मैंने उनसे कहा कि सभा के बाद मिलना। बाहर जाने पर दो रिपोर्टर दिखीं। पहले एनडीटीवी वाली ने पकड़ा। उसने मुझे डॉ॰ लोगानाथान के बारे में कुछ कहने को कहा। मैंने जो पता था बता दिया। शायद वो सन्तुष्ट नहीं हुई, उसने कहा कि और बताओ, मैंने कैमरे पर ही बोला जितना बता था बोल दिया, अब झूठ नहीं बोलूँगा, वो आपका काम है। उसके बाद सी एन एन - आई बी एन वाली मेरा इंतज़ार कर रही थी। एन डी टी वी वाली ने बोला कि जो मुझे बताया, वो उसको नही बताना, मैंने खिसिया कर कहा कि मेरी बातों का भी तुमने कॉपिरइट कर रखा है क्या? खैर फिर सी एन एन -आई बी एन वाली ने मेरा साक्षात्कार लेना शुरू किया और डॉ॰ लोगानाथान के बारे में पूछा। मैंने फिर वही बताया जो मुझे पता था। फिर उसने मीनल के बारे में पूछा। अब मीनल को मैं व्यक्तिगत रुप से नहीं जानता था, और उस समय तक उसकी मृत्यु कि खबर की पुष्टि भी नहीं हुई थी। तो रिपोर्टर ने कहा कि आपको क्या लगता है, मीनल को क्या हुआ होगा? मैंने कहा कि वो सुरक्षित होगी। उसने दो तीन बार जोर देकर इस बारे में पूछा, ताकि मैं ये कहूं कि शायद वो नहीं रही। अब जिस बारे में नहीं पता उस बारे में क्यों बकवास करूं।

४ अब तक एन डी टी वी और सी एन एन - आई बी एन में एक ज़ोरदार अघोषित प्रतियोगिता थी की मीनल कि मौत कि खबर कौन पहले बताता है। (यहाँ ये बता दूं कि सी एन एन - आई बी एन वाली पहले एन डी टी वी में काम करती थी)। खैर सी एन एन - आई बी एन वाली को एन डी टी वी वाली से पहले खबर हो गयी और चैनल पर ये खबर छा गयी। इसी समय एन डी टी वी वाली के साथ मेरा मित्र था, और एन डी टी वी वाली को उसके बॉस का फ़ोन आया, और एकदम भद्दी भाषा में उसे लताड़ा गया कि कैसे सी एन एन - आई बी एन वाली को पहले खबर मिली मीनल के बारे में। फ़ोन करने वाले की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि मेरे मित्र ने लगभग सारी बात सुनी और रिपोर्टर को लगभग गिड़गिड़ाते हुए देखा और सुना।

५ उसके बाद तो जहाँ देखो वहाँ एन डी टी वी वाली नज़र आने लगी। पता चला कि वो मंगलवार सुबह चार बजे ब्लैक्बर्ग पहुंची और अपने हिन्दुस्तानी होने का वास्ता दे कर एक मेरे एक मित्र के घर में लगभग जबरदस्ती आ गयी थी। किसी और को उसने कहा की १०० डॉलर दूँगी अगर मुझे उस जगह पर कार से चक्कर पर लगावाओगे जहाँ ये घटना हुई थी। उसको मैंने एक समाजसेवी संस्था द्वारा उपलब्ध कराया गया मुफ़्त खाना खाते देखा जो कि मृतक के मित्रों और परिवारवालों के लिए था।

६ बुधवार को दिन में एक जगह पर जहाँ मृतकों कि याद के लिए लोग फूल रख रहे थी और मोमबत्तियां जला रहे थी वहाँ रिपोर्टरों का व्यवहार तो देखने वाला था। मैं जब फूल रखने गया तो बस एक दो सेकंड के समय में अगल बगल से करीब ६ कैमरा सर पर सवार हो गए। मैंने कहा यार जीने दो और जाओ यहाँ से, तो उसमें एक चला गया बाक़ी पांच सर पर सवार ही रहे (वे सब कई देशों के थे, और एक दो शायद ठीक से समझे भी ना हों)। उसी मैदान पर जहाँ लोग याद में मोमबत्तियां जला रहे थी वहीँ कुछ समूह आपस में बैठ कर बात या प्रार्थना कर रहे थे। कैमरा वाले समूह के बीच में माइक लटका कर उनकी बातें रिकार्ड करने का प्रयास कर रहे थे।

७ इतनी देर में वौइस् ऑफ अमेरिका वाले आ गए जो आज तक के लिए कार्यक्रम तैयार करते हैं। मैं फिर फँस गया। छूटते ही मैंने उनसे बोला कि ये तो सबसे घटिया चैनल है (ऐसा मैंने सी एन एन - आई बी एन वाली को भी उसके चैनल के लिए बोला था), तो उन्होंने कहा कि वो खुद ऐसा मानते हैं। खैर वे लोग व्यवहारकुशल थे और बतिया के फिर वहीँ ले गए जहाँ लोग मृतकों कि याद में फूल दे रहे थे और बडे बडे साइनबोर्डों पर मृतकों की यादों में कुछ लिख रहे थे। आज तक वाले ने कहा यार तुम फिर कुछ लिखो और हिन्दी में लिखो, ज़रा फील अच्छा आएगा। अब मैंने क्या जवाब दिया होगा आप कल्पना कर सकतें हैं।

८ जहाँ तक हत्यारे के विडियो वाली बात है जो आपमें कई लोगों ने बृहस्पतिवार को इन्टरनेट पर देखा होगा, वो मीडिया का सबसे असंवेदनशील रवैया था। मुझे बार बार यही लगता है कि कितनी चालाकी से हत्यारे ने मीडिया का इस्तेमाल करके हम लोगों को बेवक़ूफ़ बनाया।

खैर ये रहे मेरे कुछ अनुभव मीडिया को लेकर, इसमें बहुत सारी बातें मैंने छोड़ दीं क्यूंकि मैंने वो दूसरों या तीसरों से सुनी थी।

अब इसके बाद में बात करुंगा कुछ संस्कृति की, इस घटना के बाद यहाँ कैसी सभाएं हुईं, या होती हैं और लोगों ने किस प्रकार एक दूसरे कि मदद की और इस सब के बीच में मैंने क्या अनुभव किया।

राग

Friday, April 27, 2007

पी टी एस डी: पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर

पी टी एस डी यानी "पोस्ट ट्रोमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर।" हो सकता है कि आपमें से कईयों ने यह शब्द या परिभाषा पहली बार सुनी हो। इसका सीधा सा अर्थ है, किसी ट्रॉमा यानी किसी दर्दनाक हादसे के बाद होने वाला मानसिक दबाव या असंतुलन। वर्जीनिया टेक में हाल में हुई घटना हमारे जैसे कई छात्रों और शिक्षकों के लिए दर्दनाक हादसा है और हम पी टी एस डी के अलग अलग प्रभाव देख हैं।

कोई भी हादसा किसी पर कितना मानसिक दबाव बाना सकता है, ये समय, परिस्थितियों और व्यक्ति के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। हादसा छोटे समय का हो सकता है जैसे, बम धमाका, कोई दुर्घटना, किसी की मृत्यु, या बलात्कार। हादसा लंबे समय तक चलने वाला भी हो सकता है, जैसे सीमा पर होने वाली रोज कि गोलाबारी, लंबे समय तक चलने वाली प्रतारणा या बलात्कार, या लंबे समय तक चलने वाली बीमारी।

ये कैसे पता लगे कि कोई व्यक्ति पी टी एस डी से जूझ रह है, इस की क्या निशानियाँ हैं, उसे कब, कितनी और कैसे मदद चाहिऐ? इन सब सवालों के जवाब आपको मिलेंगे मेरे रेडियो शो पर जो वर्जीनिया टेक के रेडियो पर प्रसारित होगा। रेडिओ कार्यक्रम की मेहमान होंगी डॉ॰ कीलिंग और जोतिका जगसिया। रेडिओ कार्यक्रम, पूर्वी समयानुसार अप्रैल २८ को १:०० बजे और भारतीय समयानुसार अप्रैल २८ को रात्री १०:३० बजे प्रसारित होगा और उसे इन्टरनेट पर सुनने के लिए यहाँ जाएँ और "Listen Online" पर चटका लगाएं। ज्यादा जानकारी के लिए यहाँ चटका लगाएं

राग

Tuesday, April 24, 2007

वर्जीनिया टेक की घटना और मेरे अनुभव-1

अभी हाल में वर्जीनिया टेक में हुए नरसंहार ने हम लोग को ऊपर से नीचे तक हिला दिया। इस घटना ने बहुत सारे अनुभव भी दिए। इस घटना ने जो सिखाया उसे शायद सीखने में इन्सान कि उम्र निकल जाये, और ये ज़रूरी है कि उसकी उचित मीमांसा भी कि जाये। पहले दो दिन तक दिमाग झटके में ही रहा और कुछ महसूस नहीं हुआ। फिर धीरे धीरे जैसे मृत लोगों के बारे में खबरें आने लगीं, दिल में बेबसी, दुःख, ग़ुस्सा, अपराधबोध और ना जाने क्या क्या भावनाएं आयीं। घटना के अलावा कई अनुभव और भी हुए, जिसमें खास तौर पर ऐसे समय पर मानव ह्रदय कि कोमल भावनाओं को देखा, मीडिया का गिद्ध स्वाभाव देखा, और कई लोगों कि मूर्खता भी देखी।

सबसे महत्वपूर्ण भावना रही वो ये कि इस घटना ने जीवन कि क्षणभंगुरता पर फिर भरोसा दिला दिया। मैंने अपने रिश्तेदारों में दादा, दादी और नाना कि मृत्यु अपने सामने देखी और इनके अन्तिम संस्कार में भी गया हूँ। काफी पहले हुए इन अनुभवों ने मुझे थोड़ा मज़बूत बनाया है। लेकिन तीन साल पहले मेरे कई कम उम्र रिश्तेदारों में कुछ कि मृत्यु हुई, जिसने जीवन पर भरोसा कम किया था। उसके बाद शादी हुई और जीवन के आनन्द में फिर भूल गया, "जीवन कि क्षणभंगुरता।"

इस घटना ने झकझोर दिया, बार बार दिल में यही ख़याल आता रहा कि क्या सोच के निकले होंगे घर से लोग सबेरे सबेरे, कि आज ये पढ़ना है, ये मीटिंग है, यहाँ लंच है, इससे मिलना है, शाम को सिनेमा देखना है और ना जाने क्या क्या क्या। एक बार भी दिल में ये ख़याल किसी के नहीं होगा कि ऐसा हो सकता है। सब पढ़ने वाले, समझदार, शांतिप्रिय लोग।

कई बार दिल में ये ख़याल किया कि मरने का क्या अर्थ है, क्या इसके लिए इन्सान को तैयारी करनी चाहिऐ, अगर करनी चाहिऐ तो क्या? जैसे जैसे मृतकों में जान पहचान वालों के नाम आने लगे, शोक बढ़ता गया, और इन सवालों के जवाब में दिमाग खराब होता गया। बुधवार को नोरिस २०६ कमरे में मृत हुये लोगों कि एक शोक सभा में गया। उस कमरे में घटना के समय १४ लोग थे। ४ छात्र घायल होकर भी बच गए, एक छात्र उस दिन कालेज नहीं आया, और एक छात्र ने एक हफ्ते पहले ही वो कक्षा छोड़ दी थी।

उन मृत लोगों में डॉ॰ लोगानाथान, और मेरे विभाग कि एक छात्रा भी थी, जिससे मैंने जिन्दी में पहली बार शुक्रवार को बात की थी। बार बार यही सोचता रहा कि उस दिन भी मेरी बात क्यों हुई उस लड़की से, इसके पीछे क्या दैवीय योग रहा होगा? शोक सभा में कई लोगों ने अपने संस्मरण सुनाये, डेढ़ घंटे कि वो सभा भावनात्मक रुप से बहुत मुश्किल हो गयी थी। जब मैंने इतने लोगों को संस्मरण सुने तो फिर बहुत कुछ सोचने पर मजबूर हो गया, मगर क्या, ये बयां कर पाना मुश्किल है।

दिन का अंत होते होते, कम से कम ऎसी तीन शोक सभाओं में शिरकत कर ली थी। अन्तिम सभा एक मंदिर में हुई जहाँ कई भारतीय छात्र इकट्ठा हुए और उन्होने कुछ समय भजन में बिताया। इस सभा में कुछ मित्रों ने मीनल और डॉ॰ लोगानाथान के बारे में बात की। उस भावनात्मक रुप सी कठिन सभा में कुछ उद्गार मेरे ह्रदय से भी निकले, जिनको मैं लगभग वैसा का वैसा यहाँ प्रस्तुत कर रह हूँ।

"डॉ॰ लोगानाथान एक बेहतरीन प्रोफेसर थे, उन्होने मुझे एडवांस्ड हाइड्ररोलॉजी पढ़ाया हैपढ़ाने के प्रति उनका समर्पण कक्षा के हर एक छात्र को महसूस होता थाअपने विषय के बारे में उनको बहुत ही सूक्ष्म स्तर कि जानकारियां थीपढ़ाने का उनका एक अलग ही तरीका था, और आप उनकी कक्षा में कभी अलग थलग नहीं महसूस कर सकतेउनका इस बात पर पूरा जोर रहता था कि छात्रों को विषय पूर्णतः समझ आयेडॉ॰ लोगानाथान जैसे व्यक्ति सदैव अपने छात्रों, मित्रों, और रिश्तेदारों की प्रेरणा में जीवित रहते हैंआज मैं भी जब पढ़ाता हूँ तो पार्श्व में डॉ॰ लोगानाथान जैसा पढ़ाने कि इच्छा मन में रहती हैउनकी ही तरह अपने विषय को पूर्णतः समझने कि इच्छा रहती है

मीनल के बारे में जैसा कि आप लोगों में से कुछ ने बताया (मुझसे पहले जिन लोगों ने उसके बारे में बताया) की उसकी खास बात उसके चहरे पर रहने वाली मुस्कान थी, चाहे कोई भी परेशानी होमीनल आपके चहरे पर रहने वाली मुस्कान की प्रेरणा के रुप में सदा आपके ह्रदय में रहेगीयही जीवन की निरंतरता हैजीवन के सफ़र में खो चुके लोगों की प्रेरणा दायक बातों को अपने ह्रदय में रख कर आप मृतक की आत्मा को सदा शांति प्रदान करेंगे।"

कहना और भी बहुत कुछ चाहता था। इन लोगों के बारे में जो कहा वो बिल्कुल नाकाफी था, मगर और कह नहीं पाया। शनिवार को डॉ॰ लोगानाथान कि शोक सभा में गया जहाँ उनके महान जीवन का जश्न मनाया गया। ६०० से ऊपर लोगों की सभा में अपनी भावनाओं को काबू कर पाना मुश्किल हो गया था। उस सभा के बारे में रीडिफ़ में छपा भी है। शनिवार को ही बाल्टिमोर में मीनल का अन्तिम संस्कार था, मगर मैं उसमें नहीं जा पाया, क्यूंकि मैं ब्लैक्स्बर्ग में डॉ॰ लोगानाथान कि शोक सभा में था। इस दर्दनाक घटना को एक हफ्ते हो चुके, मगर दिल अभी भी अशांत है। कल जा कर कालेज द्वारा उपलब्ध कराए गए किसी काउन्सेलर के पास जाऊंगा।

इस घटना ने जो बहुत सी बातें सिखाईं हैं उनमें से कई पर अभी बहुत कुछ लिखना है, खास कर मीडिया के गिद्धपने पर।

राग

Monday, April 16, 2007

वर्जीनिया टेक में गोलीबारी: ३३ हत, कई आहत

वर्जीनिया टेक की ड्रिल फील्ड पर कुछ देर पहले करीब २०-२५००० होकीज़ (यानी वर्जीनिया टेक के छात्र, प्राध्यापक, स्टाफ और अलेम्नाई ) और अन्य लोगों ने मोमबत्तियां जलाईं गईं और मिलकर अपनी एकता का आह्वान किया। ड्रिल फील्ड से एक ताज़ा चित्र।



हत छात्रों एक और छात्र का नाम है रीमा साहा जो कि नाम से भारतीय मूल कि लगती हैं, मगर इसके अलावा कोई और जानकारी इनके बारे में अभी उपलब्ध नहीं है। रीमा प्रथम वर्ष की छात्रा हैं जो की वॉशिंग्टन के पास सेंटरविल की रहने वाली हैं।
--रीमा के बारे में ताज़ा जानकारी ये बताती है की वे मूलतः इजराइल से थीं।

भारतीय दूतावास से अधिकारी वर्जीनिया टेक में। वे भारतीय छात्रों को ये बताना चाहते हैं कि वे कैसे भारतीय छात्रों की मदद कर सकते हैं। ये मुद्दा अलग है कि वे कभी भी अपना फोन नहीं उठाते, बात और मदद तो दूर कि बात है।

भारतीय छात्रा मीनल पांचाल की मृत्यु की पुष्टि।

हत्यारे कि पहचान के दक्षिण कोरिया के छात्र के रुप में की गयी है। ज्यादा जानकारी यहाँ उपलब्ध है
कुछ हत लोगों के नाम घोषित कर दिए गए हैं, जिन्हे आप यहाँ देख सकते हैं

मेरे विभाग कि एक छात्रा जूलिया प्राइड कि भी इसी घटना में मृत्यु हो गयी है।

मारे जाने वालों में एक प्रोफेसर डॉ॰ जी वी लोगानेथान भारतीय हैं। सिविल इंजीनियरिंग कि एक कक्षा जो मैंने तीन साल पहले ली थी -इन्ही प्रोफेसर के द्वारा- उसमें लगभग सभी मारे गए। एक भारतीय छात्र के गायब होने कि खबर कई स्रोतों से सुनने में आयी है , लेकिन अभी तक कोई पक्की खबर नही है।

ताज़ा खबर: अभी तक मारे जाने वाले लोगों कि संख्या ३३ बताई गयी है। ३१ लोग इंजीनियरिंग हॉल और २ लोग छात्रावास में मारे गए।

जैसा आपमें से कई जानते हैं कि मैं वर्जीनिया टेक में पीएच.डी कर रहा हूँ। १६ अप्रैल को किसी अज्ञात बंदूकधारी या किन्हीं अज्ञात बंदूकधारियों ने दो अलग अलग जगहों पर कई लोगों कि गोली मार कर हत्या कर दी। पहली घटना एक छात्रावास में करीब सवेरे ७:१५ बजे हुई, और दूसरी घटना एक इंजीनियरिंग हॉल में करीब ९:३० बजे के बाद हुई। फिलहाल इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि ये घटनाएं जुड़ी हैं या अलग अलग और अभी तक सिर्फ कयास ही लगाए जा रहे हैं। अभी तक कि पक्की खबर ये बता रही है कि करीब ३२ लोगों कि मृत्यु हो चुकी है, जिनमें एक बंदूकधारी भी शामिल है। अमरीका के इतिहास में ये अभी तक की सबसे बड़ी घटना बतायी जा रही है।

मुझे चूंकि आज कालेज देर से जाना था और जब तक मैं जाता, इस बारे में खबर आ चुकी थी, इसलिये मैं सुरक्षित घर पर ही रहा। मेरे मित्रों में भी सभी ताज़ा जानकारी मिलने तक सुरक्षित हैं।
इंजीनियरिंग हॉल में कई भारतीय भी पढ़ते हैं, किन्तु जिस कक्षा में ऐसा हुआ वहाँ के बारे में कोई खास जानकारी फिलहाल नहीं है। जैसे जैसे जानकारी मिलेगी मैं इसी पन्ने पर बताता रहूँगा। हत्या के कारण के बारे में कई कयास लगाए जा रहे हैं, जिनके बारे में अभी बात करना जल्दबाजी होगी। नीरज दीवान जी के सौजन्य से मैंने इंडिया टीवी पर भी इस बारे में सीधी बातचीत की, जिसके बारे में बाक़ी जानकारी वही देंगे।

आज रात को मैं इससे सम्बंधित शोक सभा में भी जाऊंगा।
राग

Sunday, April 15, 2007

ग्लोबल वार्मिंग: कुछ सत्य कुछ मिथक

जैसा आपमें से कईयों ने देखा है कि परिचर्चा में मैंने एक विषय शुरू किया जिसमें कई लोगों ने ये बातें कहीं कि वे पर्यावरण बचाने में क्या योगदान करते हैं, और क्या करना चाहते हैं। ग्लोबल वार्मिंग जैसे मुद्दे पर कुछ मिथक और कुछ शंकाएं भी हैं तो मुझे लगा कि मैं इस मुद्दे पर कुछ अपने विचार रखूँ।

१ ग्लोबल वार्मिंग के संबंध में डाटा कम है, और एक प्रकार का भ्रामक धंधा है ये।
आई पी सी सी कि ताज़ा रिपोर्ट में सबसे महत्वपूर्ण बात ये बात कही गयी है कि अब हमें मॉडल कि ज़रूरत नहीं है, बल्कि हमारे पास जमीनी आंकडें मौजूद हैं। इस बारे में ज्यादा बहस करने से पहले आप ये समाचार पढ़ सकते हैं।

२ इंसानी गतिवीधियों और कार्बन डाई ऑक्साइड कि बढती मात्रा का संबंध।
इस बारे में जो सबसे बड़ी बात कही जाती है, वो ये है कि ज्वालामुखियों और समुद्र से जो कार्बन डाई ऑक्साइड निकलती है वो इंसानी गतिविधियों से निकलने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड से कई गुना ज्यादा होती है। ये बात सौ फी सदी सच है लेकिन प्राकृतिक माध्यमों से निकलने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड, प्राकृतिक माध्यमों से दुबारा सोख ली जाती है। ऐसा इंसानी स्रोतों से निकलने वाली गैस के साथ नहीं है।

३ इंसानी गतिविधियों से निकलने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड बहुत कम है।
यह बात भी सौ फी सदी सच है, लेकिन पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड कि मात्र बहुत ही कम है, और इसलिये इसमें होने वाली थोड़ी घट बढ़ भी इस नाज़ुक संतुलन को बिगाड़ सकती है।
इसी बात को अगर आगे बढ़ायें तो ये सर्वविदित तथ्य है कि फोसिल फुएल्स के जो अनगिनत स्रोत हैं धरती पर वे इसलिये बनें कि वातावरण में पहले कार्बन डाई ऑक्साइड कि मात्रा अधिक थी और अत्यधिक पेड़ पौधों के कारण ही ये संतुलन बदला। कई लाखों सालों में ये प्रक्रिया हुई, और जब ये पेड़ पौधे धरती में लाखों सालों तक अत्यधिक तापमान में रहे तो पेट्रोलियम के पदार्थ में बदले। अब सीधी सी बात ये है लाखों साल में बने यह पेट्रोलियम अगर हम २-३०० साल में फूंक दें तो पृथ्वी का वातावरण कैसा होगा?

४ कार्बन डाई ऑक्साइड और बढ़ते तापमान का कोई संबंध नहीं है
इस बात पर बहुत बहस हो चुकी है और चालू है, लेकिन ये सीधा सा गणित है कि पृथ्वी के पर्यावरण में बदलाव घातक सिद्ध होगा। वैसे आई पी सी सी कि फरवरी कि रिपोर्ट में ऐसा साफ साफ कहा गया है कि ये संबंध एकदम सीधा है।

५ ग्लोबल वार्मिंग के नाम पर किये गए व्यक्तिगत स्तर के प्रयास कोई खास महत्व नहीं रखते
पृथ्वी पर करीब ९ अरब लोग हैं। यदि हर व्यक्ति अपने द्वारा उत्सर्जित की गयी कार्बन डाई ऑक्साइड (और अन्य प्रदूषक) को प्रति वर्षा १० किलो कम कर दे तो पूरी पृथ्वी पर करीब ९ करोड़ टन गैस का उत्सर्जन हम कम कर सकते हैं. इसके अलावा बड़े स्तर पर जो प्रयास होने चाहिऐ वो अलग।

६ ये मुद्दा ज़रूरत से ज्यादा पीटा जा चुका है।
ऐसा लगता है कई बार खास कर उन्हें जो इस संबंध में प्रयास कर रहे हैं, लेकिन यदि आप ध्यान से समाज और साथ के लोगों को देखें तो आपको समझ आएगा कि अभी भी करीब ९०-९५ प्रतिशत लोग रिसाइकल नहीं करते हैं, और संसाधनों का प्रयोग ठीक से नहीं करते हैं। यदि आपको इस बारे में कोई शक हो तो एक हफ्ते हर दिन अपने द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं की सूची बनायें, और उन चीजों को छाँटें जो आपने बिल्कुल बेकार प्रयोग की या आप रिसाइकल कर सकते थे, तो आपको इस बात का एहसास होगा।

७ और भी गम है ज़माने में
ये बात बिल्कुल सही है, और हर मुद्दे को महत्व दिया जाना चाहिऐ। लेकिन अधिकतर मुद्दे व्यक्तिगत स्तर पर हल करने पड़ते हैं, मगर उसको प्रेरणा कि ज़रूरत लगातार रहती है। अब एड्स का मुद्दा ही देखिए, यदि लोग अपने परिवार में और बच्चों को इस बारे में जानकारी नहीं देंगे तो ये मुद्दा हल नहीं हो सकता, गन्दी राजनीति कि बात देखिए तो ये तभी हल होगी जब तक ज्यादा ज्यादा से लोग राजनीति में रूचि नहीं लेते। ये सच है कि और भी गम है ज़माने में, और हमें चाहिऐ कि सब तरफ ध्यान दें, लेकिन एक बार में एक ही मुद्दे कि बात होती है। मसलन, इस चिट्ठे को आप ग्लोबल वार्मिंग के संबंध में पढ़ रहे हैं और मैं अगर अफ्रीका कि भूखमरी कि बात चालू कर दूं तो मैं और आप भटक जायेंगे, और कोई भी मुद्दा नहीं हल होगा।

८ यदि ये ग्लोबल वार्मिंग और मानव गतिविधियों का संबंध सच नहीं हुआ तो?
इस बात कि सम्भावना लगभग नहीं के बराबर है। ग्लोबल वार्मिंग हो रही है इस बारे में कोई दो राय नहीं। फिर भी अगर ये बात साबित भी हो गयी कि (०.०००१%) मानवीय गतिविधिया इसके लिए जिम्मेदार नहीं है, तो भी इस बारे में किये आपके प्रत्येक प्रयास सार्थक होंगे। फोसिल फुएल खतम होंगे, ये सबको पता है, इसलिये हमें ना खतम होने वाले उर्जा के संसाधनों का प्रयोग करना ही पड़ेगा, और जितना जल्दी करें अच्छा है। वैसे भी छत पर पड़ते सूरज की रोशनी का प्रयोग ज्यादा समझदारी भरा है, बजाय ५००० मील दूर से मंगाई गयी उर्जा से। फोसिल फुएल से सिर्फ कार्बन डाई ऑक्साइड नहीं, कई हानिकारक पदार्थ भी निकलते हैं और इन पर निर्भरता कम करना, समझदारी ही होगी। जो पदार्थ प्राकृतिक रुप से नष्ट नहीं हो सकते, उनका प्रयोग ना करना मेरे ख़्याल से उचित हो होगा।

संसाधनों का न्यूनतम और समझदारी भरा प्रयोग विश्व की और समस्याओं को भी कम करेगा। इस बारे में फिर कभी...

राग

लोग घर में कितनी बर्बादी करते हैं

Friday, April 13, 2007

मादक शनिवार

मित्रों इस बार वर्जीनिया टेक के भारतीय कार्यक्रमों में हिंदी सिनेमा के कुछ बेहतरीन मादक और मदहोश करने वाले गाने सुनाऊंगा। आशा है कि आपको ये गाने प्रसन्न करेंगे। ज्यादा जानकारी के लिए देखें

कार्यक्रम प्रसारित होगा शनिवार को पूर्वी अमेरिकी समय से दोपहर १ बजे और भारतीय समय से रात को १०:३० बजे। रेडियो कार्यक्रम सुनने के लिए बस खोलिये ये लिंक http://www.wuvt.vt.edu/main.html और चटका लगाइये "Listen Online" पर। ब्लैक्सबर्ग में ये कार्यक्रम ९०.७ ऍफ़ एम पर सुना जा सकेगा। १-५४०-२३१-९८८८ पर आप फ़ोन करके फरमाइश भी कर सकते हैं अपने पसंदीदा गानों की।

आप चाहें तो टिपण्णी के द्वारा भी अपने मनपसंद गानों कि फरमाइश कर सकते हैं। मैं पूरा प्रयास करूंगा आपकी फरमाइश पूरी करने की।

राग

Tuesday, April 10, 2007

सेक्स श्श्श्श्श्श्श्श

अरे अगर सेक्स का ज्ञान दिया तो बच्चे बिगड़ ना जायेंगे। उनका चरित्र खराब हो जाएगा, शायद वे आपस में ही सेक्स करने लगे।

कई दिन से ये बकवास तर्क देख रहा हूँ जिनके कारण कई राज्यों में यौन शिक्षा देने से मना कर दिया गया है। यौन संबंधों के मामले में हमारा समाज वैसे कितना घुटा हुआ है इस बारे में बहस फिर कभी, लेकिन क्या बच्चों को ये ज्ञान देना ज़रूरी नहीं है कि वे किस लिंग के है, उस लिंग का होने से क्या महत्व है, उनके शरीर के अंगों का क्या कारण है, अपने अंग छूने का अधिकार मात्र उन्हें खुद ही है, और कोई और उनके अंगों को बिना उनकी मर्जी के छू रह है तो वो गलत कर रहा है।

अभी हाल के १७००० बच्चों के सर्वेक्षण में करीब ५०% से ज्यादा बच्चों ने ये कबूल किया कि उनका यौन शोषण कभी ना कभी ना किया गया है। ये यौन शोषण परिवार मैं, किसी उम्र से बडे मित्र द्वारा, किसी बस या ट्रेन में, या किसी आयोजन में होता है। कभी कभी बच्चे ऐसा होने पर संभल जाते हैं, और कभी कभी ऐसे बच्चों के मानसिक संतुलन पर काफी असर पड़ सकता है।

अब समाज के यौन घुटन के बारे में फिर कभी लिखूंगा और जाने सरकार हमें कब अधिकार दे स्कूलों में इसे पढ़ने का लेकिन माँ बाप से ये उम्मीद रहेगी कि वे अपने बच्चों को समय से उचित यौन शिक्षा दें। और ऐसी शिक्षा देने से पहले खुद भी कुछ पढ़ लें। गलत शिक्षा और मूर्खतापूर्ण पूर्वाग्रह और भी खतरनाक होते हैं।

इससे समबन्धित समाचार तो सब जगह है लेकिन आप इस रिपोर्ट को यहाँ भी पढ़ सकते हैं।
कड़ी
कड़ी 2

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एक संबंधित चिट्ठा

Friday, April 06, 2007

आई पी सी सी की ताज़ा रिपोर्ट - खतरनाक स्थिति

अब आई पी सी सी की ताज़ा रिपोर्ट भी गयी है। रिपोर्ट अगर आपने नहीं पढ़ी है तो रिपोर्ट की मुख्य बात ये है कि ग्लोबल वार्मिंग का सबसे ज्यादा असर गरीब देशों पर होगा। रिपोर्ट साफ साफ यह कहती है कि उत्तर भारत इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाली जगहों में से एक होगा. अब ग्लोबल वार्मिंग से प्रभावित होने वाले लोगों कि संख्या लाखों या करोड़ों में नहीं बल्कि अरबों में होगी. जो अब तक सो रहे हैं उन्हें ये एहसास होना चाहिऐ कि आज के बच्चे, क्या शायद हम और आप भी अच्छे वातावरण में सांस ना ले सकें।

हिंदी परिचर्चा में मैंने एक विषय शुरू किया है जिसमें आप पर्यावरण को दिए अपने सहयोग के बारे में चर्चा कर सकते हैं और दूसरों से प्रेरणा ले सकतें है। चर्चा करने वाले अधिकतर लोगों ने इस बात पर खास ज़ोर दिया कि वे यूज़ ऎंड थ्रो टाईप कि वस्तुओं का प्रयोग कम कर रहे हैं, और सी ऍफ़ एल बल्बों का प्रयोग कर रहे हैं। अतुल जी तो साइकिल का ही प्रयोग करते हैं और सोलर कुकर से खाना पकाते हैं। इसके अलावा भी चर्चा करने वालों ने कई प्रेरणादायक प्रयास गिनाये। आप भी पढ़िये, प्रेरणा लीजिये और बताइए कि आप क्या करते हैं पर्यावरण के लिए, और क्या करना चाहते हैं। बताइए कि पर्यावरण बचाने के लिए आपने आज क्या प्रतिज्ञा ली।

राग

Thursday, April 05, 2007

परिचर्चा में चर्चा कीजिये पर्यावरण को दिए अपने योगदान की

हिंदी परिचर्चा में मैंने एक विषय बनाया है जिसमें आप पर्यावरण को दिए अपने व्यक्तिगत सहयोग के बारे में अपना अनुभव बाँट सकतें हैं। इस चर्चा में आप उन सब बातों का उल्लेख करें जिससे आप को लगता है कि आप पर्यावरण को सहयोग दे रहे है। इससे ना सिर्फ ये पता चलेगा कि व्यक्तिगत स्तर पर हम पर्यावरण के लिए कितने जागरूक हैं, बल्कि पढने वाले लोगों को भी कुछ नया करने कि प्रेरणा मिलेगी। इस छोटे से प्रयास से शायद हम पृथ्वी का कुछ थोडा सा भला कर सकतें हैं।

तो फिर शुरू हो जाइए और सबको बताइए कि आप क्या कर रहे हैं पर्यावरण के लिए

अगर आपको लगता है आप कुछ करना चाहते हैं और किन्हीं कारणों से नहीं कर पा रहे हैं तो वो भी लिखिए

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Tuesday, April 03, 2007

चलो नेतागिरी करें

दो दिन पहले उप्र के चुनाव कि कवरेज सुन रह था बीबीसी में. जी उकता गया सच में. सोचा कि जिन मुद्दों को मैं थोड़ा सा भी महत्व देता हूँ, उसकी क्या कीमत है आज?

  • सूख रही है गंगा? सब बकवास है? (या फिर सवर्णों या ईसाईयों का झूठा प्रचार है )
  • ग्लोबल वार्मिंग? यह क्या है?
  • मरता हुआ किसान? अमेरिका से अनाज सकता है ना!
  • प्राथमिक शिक्षा? सब पढ़ गए तो हमें वोट कौन देगा?
  • उच्च शिक्षा? जाओ ना पढ़ने विदेश फिर?
  • समाजिक बराबरी? आरक्षण का लेमन चूस दिया ना? चूसो?
  • बिजली? जो आज तक ना रही उसके बारे में क्या उम्मीद करो?
  • भ्रष्टाचार? ये भी कोई मुद्दा है?
  • शोध? क्यों? हमें तो सब पता हैं ना?
  • एड्स? श्श्श्श्श्श्श्श
एक छोटी से कविता लिख दी इस मुद्दे पर, माफ़ कीजियेगा

चलो नेतागिरी करें
तुम जाती का मुद्दा उठाओ,
हम गरीबी का उठाते हैं

तुम मंदिर बनाओ,
हम कहीँ मदरसा खङा करवाते हैं
तुम जुर्म कि गिनती कराओ
हम गबन कि करवाते हैं

चलो नेतागिरी करतें हैं

अब क्या करना इस बात से कि
किसान मर रहे हैं
सरपंच से कह कर उनके वोट तो पड़ ही जाते हैं

अब क्या करना इस बात से कि
गंगा गन्दी हो रही है
कुम्भ में नहाते वक्त
पानी ही तो छोड़ना होगा बाँध से
और फिर हो जाएगा हर हर गंगे

क्या मतलब इस बात से कि
सूख रही गंगा,
नहीं कर पाएगी भरण पोषण
इस सूखते हुए राज्य का।
बंगलादेश से मँगा लेंगे कुछ और वोटर

बिजली अब कोई मुद्दा नहीं
सबके पास जनरेटर है
नहीं तो एक इनवर्टर है
वैसे एक घंटे भी रहेगी बिजली तो
अमिताभ प्रचार कर ही देगा

भ्रष्टाचार कोई मुद्दा रहा नहीं
एक ही तो हम्माम है
सब ही हैं इसमें नंगे
हम राजा तो तुम्हारी जांच
तुम राजा तो हमारी जांच

यह खेल भी बड़ा निराला है
सबको मंत्रमुग्ध कर डाला है
फिर गद्दी पर आएंगे
कुछ और भी खेल दिखायेंगे

आओ वोट माँग के आते हैं,
कुछ और भी रंग दिखाते हैं

चलो नेतागिरी फैलाते हैं

राग

Monday, April 02, 2007

सन् २०३० के बाद क्या गंगा बचेगी?

कल इस बारे में समाचार देखा कि २०३० तक हिमालय के हिमनद अपने आकार के १/५ ही रह जायेंगे। वैसे इस बारे में पहले भी को चेतावनियाँ आ चुकी हैं मगर यह ताज़ा रिपोर्ट कहती है कि इन हिमनदों के घटने का स्तर बहुत तेजी से बढ़ रहा है और अगर पृथ्वी यूं ही गर्म होती रही तो २०३० तक यह हिमनद बुरी तरह घट जायेंगे। यदि आपको लगता है कि आपको कुछ करना चाहिऐ तो पढिये टाइम का ताज़ा अंक और कुछ प्रेरणा लीजिये। लोगों को और जागरूक बनाइये, कृपण होइये, बिजली बचाइए, मगर कैसे भी करके इस पृथ्वी को बचाइए।

समाचार कडियाँ
हिमनद का घट रह आकार
टाइम का ताज़ा अंक

राग

Tuesday, March 13, 2007

आओ जज करें

कई दिन से इस मुद्दे पर लिखने की सोच रहा था, एक दो बार इसी समस्या से पाला पड़ा तो सोचा अब मन की भड़ास निकाल ही दूँ। इंसान की शायद ये सबसे बड़ी कमियोॆ में से एक है, किसी व्यक्ति को, किसी वस्तु को तुरंत जज कर देना। इस हरकत के हममें से सभी शिकार हैं और जल्दी कोई भी मानेगा भी नहीं ।

खैर, मेरा ये समझना है कि हम अपने छोटे से दिमाग में कुछ खाँचे सदैव बना कर चलते हैं। इन खाँचों में समय के अनुसार बदलाव आ सकता है, मगर मामूली। जैसे जैसे हमें लोग मिलते हैं या कोई वस्तु, हम अपनी छोटी सी समझ से उसको किसी एक खाँचे में फिट कर लेते हैं।अब फिर वो दूसरा आदमी लाख सफाई देले लेकिन आप उसे उस खाँचे से निकालेंगे नहीं। उदाहरण के तौर पर, मैं सवर्ण (जिसका मेरे लिए यूँ तो खास मतलब नहीं, फिर भी) हूँ। अब यदि मैं आरक्षण जैसे मुद्दे पर विरोध दर्ज कराऊँ तो इसका सीधा मतलब ये हो गया कि मैं जाति पाति मानता हूँ, हजारों साल से मैं खुद ही दलित जातियों का दमन करता आ रहा हूँ आदि आदि। अब चाहे मैं सिर पीटता रह जाऊँ कि भैया समाज की बराबरी के पक्ष में मैं भी हूँ, और जाति पाति में भरोसा नहीं करता, और सामाजिक समता के लिए कोई दूसरा तरीका बेहतर समझता हूँ। लेकिन हम तो जज कर लिए गए हैं, अब कर लो जो करना है।

अभी ब्लॉग जगत में सिर फुटौवल हुई थी, कभी गाँधी - सुभाष को लेकर, कभी हिन्दु - मुस्लिम को। अपने जोश में सबने हर एक को सुविधानुसार खाँचे में फिट किया और फिर जितनी बात लिखी जाती थी उससे ज्यादा समझी जाती थी। जो होना था सो हुआ। रोज़मर्रा के ही जीवन में हम स्वयं एसी गलतियों के कई बार शिकार होते हैं। आँखें बंद करके सोचिए कि पिछले हफ्ते में हम कितने नए लोगों से मिले, कितनों को जज किया, और कितनों को नकारात्मक रूप में जज किया। नकारात्मक बातों में एक खास बात और होती है, जैसे ही आप किसी को नकारात्मक रूप में जज कर लें तो आपको उस बात के साक्ष्य भी तुरंत मिलने लगेंगे। एक सबसे बढ़िया उदाहरण चाहे तो आजमा कर देख लीजिए, अगल बगल के किसी आदमी या औरत के चरित्र के संबंध में खुद से सवाल उठा कर देखिए। देखिए मन में कैसे कूड़ा बढ़ता है और सामान्य सी बातें संदेहास्पद हो जाती हैं।

इस बारे में मेरी एक मित्र से भी बहस हो रही थी। मुझे तो खैर ये समझ आया है कि हर एक मनुष्य किसी भी परिस्थिति में जो करता है उसके पीछे कई कारण होते हैं, कुछ कारण आनुवांशिक होते हैं, कुछ अनुभव और परिवेश के कारण और कुछ क्रियाएं त्वरित उत्पन्न होती हैं। हम जब तक किसी को बहुत ही अच्छी तरह ना जानें हमें जज करने से बचना चाहिए, खासकर नकारात्मक तौर पर। यदि नकारात्मक तौर पर जज कर भी दिया तो भी दिमाग खुला रखना ताहिए। मेरी कोशिश ये रहती है कि मैं साधारण तौर पर किसी परिस्थिति पर मौके के अनुसार ही प्रक्रिया करूँ और पुराने पूर्वाग्रहों को बाधा नहीं डालने दूँ। गाँधी जी का ये कथन काफी हद तक सही है "पाप से घृणा करो पापी से नहीं।"

शायद यही कारण है कि कुछ लोगों से कभी लड़ाई होने पर भी वो आज मेरे मित्र हैं।

अब देखिए और अपने दिमाग के खाँचों में जो बेवजह फँस गए हैं उन्हें निकालिए। जैसे कई मित्र, कोई ब्लॉगर, कोई शिक्षक, एडवाइज़र, दुकानवाला, सब्जीवाला और ना जाने कौन कौन।

राग

एसी रही हमारी होली।

होली तो इस बार भी बड़ी जम कर खेली हर बार की तरहसोचा आपको भी वर्चुअल होली खिला देंहमारी श्रीमती जी इस बार हमारे साथ नहीं थी, तो हम यहाँ अकेले ही थे, और बिना दाढ़ी बनाए घूम सकते थे। बाकि के चित्र यहाँ हैं। लोग आते गए और होली खेल कर खा पी कर जाते गए, इसी खेलाखेली में जितने चित्र खींच सका, प्रस्तुत हैं।
पहले दोनों चित्र इस आश्चर्य में कि ये बच्ची मुझे देख कर डरी नहीं।






राग

Saturday, March 10, 2007

आरक्षण के मुद्दे के जवाब पर कुछ जवाब

प्रदीप जी ने मेरे पिछले लेख पर कुछ टिपण्णी की। प्रदीप जी पहले तो इतनी लंबी टिपण्णी का धन्यवाद कि आपने अपना पूरा पक्ष सामने रखा है। मैं बड़ी पोस्ट नहीं लिख पाता, तो कोशिश करूंगा कि छोटे में अपनी बात कह सकूं।

सबसे पहले तो मैं यह साफ कर दूं कि समाज के समान रुप से विकास को मैं स्वयं सबसे बड़ी प्राथमिकता देता हूँ। आप बहस का दायरा बिना छोटा किये भी अपने बिन्दु स्पष्ट कर सकते हैं। यह शत प्रतिशत सही है कि सवर्णों ने कई सदियों से नीची जाती के लोगों का शोषण किया है, और यही एक बड़ा कारण है कि इन जातियों कि समाज में हिस्सेदारी बहुत कम है। जब आरक्षण आजादी के बाद लगाया गया था, तब भी समाज कि संविधान निर्माताओ कि यहीं धारणा थी। किन्तु पिछले ५०-६० सालों में हमारा समाज बड़ी तेजी से बदला है और विकासोंमुखी हुआ है।

इस बदलते समाज में जिसमें मौका छीनने की कूवत थी, या जिसे मौका मिला वो आगे बढ़ गया। जिनको मौका नहीं मिला या नहीं मिल पाया वो पीछे रह गए। मौका ना मिल पाने का कारण गरीबी, अशिक्षा, जाती व्यवस्था, सरकार कि पूरे देश तक बराबर विकास कर पाने कि नाकामी, आदि कई कारण थे. उदाहरण के तौर पर; सब लोग जानते हैं कि उत्तर पूर्वी राज्यों में सरकार का कैसा रवैया है और वो जगहें बाकी देश तक से पीछे रह जा रही हैं। अब अगर वहाँ का कोई बाशिंदा समाज में आगे नहीं बढ़ पाया तो उसका ज्यादा बड़ा दोष वहाँ कि सरकारी नीतियाँ रहेंगी, ना कि उसकी जाती।

खैर यहाँ तक तो वो बातें थी जिसपर हम दोनों, या और भी कई लोग सहमत हैं। आपने ये पूछा कि कोई ठोस विकल्प भी होना चाहिऐ, अगर हम वर्तमान व्यवस्था का विरोध करते हैं। जो मैं सुझाव देने जा रहा हूँ, ये मात्रा एक छोटा सा खांचा है जिसको बहुत सारे तरीकों से प्रस्तुत किया जा सकता है, बढ़ाया जा सकता है, और लागू किया जा सकता है। इन सुझावों को आप या कोई भी बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़ें, इसे ये देख कर ना पढ़ें कि इसे किस जाती के आदमी ने लिखा है। बस ये सोच के पढ़ें कि इसे एक देशभक्त ने लिखा है जो आपकी ही तरह पूरे समाज कि उन्नति चाहता है।

१ सभी प्राथमिक, उच्च और शोध विद्यालयों और विश्विद्यालयों में २५% आरक्षण गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के लिए। अब इसको २५ कि जगह २० या ३० या ४० किया जा सकता है मगर वो मेरे कार्यक्षेत्र से बाहर का फैसला है। इस फैसले को चरणबद्ध तरीके से लागू किया जा सकता है, और लोग बेईमानी ना कर सकें नकली प्रमाण पत्र बनाकर इसका भी प्रावधान किया जा सकता है। और भी कई हिस्से जोड़े जा सकते हैं अधिक शोध करके।

२ गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले प्रत्याशियों से फ़ीस ना ली जाये, और उनके लिए वजीफे के बंदोबस्त भी किये जाएँ।

३ भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों में प्राथमिक शिक्षा का अधिकार जोड़ा जाये (अब इसके लिए बुनियादी ढाँचे का रोना नहीं रोया जा सकता)

३ सभी प्राथमिक शिक्षकों की तनख्वाह और मिलने वाले मुआवजे में वृद्धि। प्राथमिक शिक्षक के कैरीयर को ज्यादा आकर्षक बनाया जाये।

४ भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में सीटें बढ़ाने का फैसला सही है, और उसे किया ही जाना चाहिऐ (बल्कि इस फैसले को लगाने में हम कई साल पीछे हैं ), किन्तु चरणबद्ध तरीके से और योजनाबद्ध तरीके से (ये तो ज़रूरी है ही, चाहे आरक्षण हो या ना हो)

और भी प्रावधान किये जा सकते हैं, जोड़े जा सकते हैं जिसे सामान्य ज्ञान अनुमति दे।

क्या ये योजना ठीक है, या फिर जाती के आधार पर समाज को बांटने कि साजिश, ऐसे लोगों द्वारा जिन्हें समाज के विकास से ज्यादा अपने वोट बैंक की ज्यादा चिंता है, या फिर इतिहास कि किताबों में अमर हो जाने की चिंता??

राग

अपनी बात कहते हुए मेरे दिमाग में एक बात और आयी कि कॉङ्गरेस कि सरकार ने शिक्षा के मुद्दे को मूल अधिकारों में जोड़े जाने कि बात नहीं की, और इसका दोष हमेशा बुनियादी ढाँचे कि कमी को बताया गया, मगर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण कि बात हुई तो कहा गया कि सभी शिक्षण संस्थानों में साल में इंतज़ाम कर दिया जाएगा, और इसके लिए खीसें से ३५ हज़ार करोड़ रुपये भी निकल आये...

भारत पुनर्निमाण दल की आने वाले चुनावों कि तैयारी

संपादित: ये घोषणा छपी है भापुद के जालस्थल पर उप्र के चुनावों के संदर्भ में।

जैसे कि आपमें से कइयों ने पढ़ा और सुना कि मैंने भारत पुनर्निमाण दल के उपाध्यक्ष श्री रवि किशोर जी का साक्षात्कार लिया था जो कि मैंने यहाँ पर पोस्ट किया है। रोजाना कि हिट्स से तो लगा कि काफी लोगों ने इस साक्षात्कार को सुना या पढ़ा है। खैर भापुद ने उत्तर प्रदेश में चुनावों में उतरने कि घोषणा कर ही दी है करीब २५-३० सीटों पर प्रत्याशी घोषित किये गए हैं। लखनऊ से भापुद के अध्यक्ष श्री अजित शुक्ल ही चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं।

कभी कभी लगता है कि देश को नयी पार्टी कि क्या ज़रूरत है, लेकिन साथ ही ये भी एहसास होता है कि अगर कल को वोट देने जाऊं तो किसे दूंगा वोट? कॉंग्रेस, बीजेपी, सपा, या बसपा ? नए विचारों से भरी हुए नए लोग ज़रूर ही कुछ नयी चीज़ें लेके आएंगे और कुछ नया करने कि हिम्मत भी। कम से कम अब ७०-८० साले के वृद्ध लोगों से शासित होने कि इच्छा तो बिल्कुल भी नहीं है।

खैर मेरी तो इस नयी पार्टी को शुभकामनाएं हैं। अगर उप्र में होता तो साथ भी ज़रूर देता इन लोगों का। मुझे रवि से साक्षात्कार में उनकी कुछ कही हुई बातें खास तौर पर पसंद आयी जिसे में यहाँ वैसा का वैसा अनुवादित कर दे रहा हूँ, अर्थ आप स्वयं लगायें :)।

"भारत का विकास आजादी के बाद से कोई बहुत योजानाबद्ध तरीके से नहीं हुआ है"

-ये समझाते हुए कि भारत पुनर्निमाण दल के नाम का मतलब क्या है

"राजनीति में आने के लिए प्रेरित होना मुश्किल नहीं है... प्रेरणा बड़ी आसानी से जाती हैहमारे देश की जनसंख्या अरब है, और ज़रा सदन में बैठे ५४३ लोगों को देखो या किसी भी राज्य कि सदन में बैठे लोगों का विश्लेषण करोअपने आप को ये समझाना बड़ा आसान है कि हम इनसे बहुत बेहतर नेता दे सकते हैं"

-राजनीति में आने कि प्रेरणा के बारे में पूछने के बारे में

"तंत्र इतना भ्रष्ट है और कोई इसके लिए कुछ नहीं कर रहा है, ये अपने आप में एक प्रेरणा है"

-ये पूछने पर कि इतने भ्रष्ट तंत्र में घुस कर लड़ने कि प्रेरणाशक्ति कहाँ से आती है


राग

Friday, March 09, 2007

आरक्षण - पुनः बढ़ती बहस

चूंकि अब खबर थोड़ी पुरानी होती जा रही है इसलिये इस मुद्दे पर बहस भी कम होती जा रही है, किन्तु आरक्षण का मुद्दा आज भी वहीँ पर है जहाँ करीब ६-७ महिने पहले था। सर्वोच्च न्यायालय में इस पर बहस अब पूरी हो चुकी है और न्यायालय ने अपना फैसला सुरक्षित रखा हुआ है।

यद्यपि अकल से देखा जाये तो ये आरक्षण का मुद्दा पूर्णतया मूर्खता भरा है लेकिन ये मनमोहन जी कि सरकार जो ना कराए वो थोड़ा ही है। आरक्षण के अनुभव को एक सफल अनुभव मानने वाले एक समाजशास्त्री श्री योगेंद्र यादव जी भी यही मानते हैं कि इस प्रकार आरक्षण लगाना मूर्खता है इकॉनोमिक टाइम्स में इस सिलसिले में बढ़िया रिपोर्ट है जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं इसमें बताया गया है कि अदालत कैसे इस सरकार से फिर वही सामान्य ज्ञान के सवाल पूछ रही है कि कैसे १९३१ के आधे अधूरे आंकणे को इस्तेमाल करते २००७ में आरक्षण लगाया जा रह है? क्या जल्दी थी कि सरकार ने ज़रूरी जानकारी जुटाना उचित नहीं समझा?

आरक्षण कि मूल भावना से मुझे भी कुछ गुरेज नहीं है। समाज के पिछड़े तबके को मौका दिया जान चाहिऐ कि वो आगे बढ़ सके, लेकिन इसके लिए "जितने काले सब मेरे बाप के साले" वाला तरीका क्यों अपनाया जा रह है ये मेरी समझ के बाहर है। पिछड़ापन गरीबी और अशिक्षा के कारण आता है, जहाँ तक जाती का मुद्दा है, ये बात ३०-४० साले पहले सही थी, मगर अब उतनी सही नहीं रही। एक व्यक्ति जो कि जाती से ब्राह्मण है अगर वो गरीब है तो अपने बच्चे को बड़े संस्थान में नहीं पढ़ा सकता, मगर एक रईस आदमी चाहे किसी भी जाती को अपने बच्चे को जितने चाहे मौक़े दिला सकता है।

फिर सोचता हूँ कि ये बातें मैं क्यों कर रह हूँ ? ये तो सामान्य ज्ञान कि बातें हैं, जो कब्र में पैर लटकाए अर्जुन सिंह जैसो को क्यों समझ आएगी, जिनको मरते मरते मसीहा बन के मरना है। सठियाने कि उमर से आगे जाके लोग हम पर राज करके हमारे चहरे पर चपत लगा रहे हैं और हम देख राहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय कि बात जोह रहे हैं, कि शायद उसी से अब उम्मीद बची है। विकास कि बात तो छोड़ो ये सरकार सामान्य ज्ञान को धता बता रही है। एक तरफ विकास के नाम पर बिना ठीक से मुआवजा दिए जमीन छीनती है गरीबों की और ऊपर से आरक्षण का लोलिपोप दिखाती है।

खैर मैं बेसब्री से सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय का इंतज़ार कर रहा हूँ, आप भी करिये (और कर भी क्या सकेंगे?)

राग

Thursday, March 08, 2007

ब्लॉगर पर हिंदी का ट्रान्सलिट्रेशन टूल प्रयोग का prayas

हाँ भैया, तो हम ब्लॉगर का ट्रान्सलिट्रेशन टूल का प्रयोग करके ये ब्लॉग पोस्ट कर रहे हैं। मज़ा आ गया क़सम से इससे लिखने में। ये तो सच में बड़ी मजेदार स्टाइल है, और कंप्यूटर में किसी सेटिंग को बदलने कि भी कोई ज़रूरत नहीं है। यानी कि अब किसी भी कंप्यूटर पर बैठ कर इसे इस्तेमाल किया जा सकता है।

समीर जी की भाषा में जीतू भाई को इस खबर का खुलासा करने के लिए साधुवाद।

राग

बल्ले बल्ले

Sunday, February 18, 2007

एक शाम उस्ताद शफातुल्लाह खान के साथ

असोसिएशन फॉर इंडियाज़ डेवेलपमेंट (Association for India's Development) के वर्जीनिया टेक विभाग ने ये शाम आयोजित की थी। तबले और सितार की संगति में बिताई ये शाम निश्चित ही एक बेहतरीन अनुभव रही।

सबसे पहले उस्ताद शफातुल्लाह खान ने अपनी फनकारी का नमूना दिखाया तबले पर। ४५० लोगों से भरे हेमार्केट थिएटर में लोग तबले पर थिरकती उँगलियों के जादू से मंत्रमुग्ध थे। फिर आधे घंटे का अंतराल हुआ और हमने चाय और समोसे का मज़ा लिया। अंतराल के बाद उस्ताद ने सितार के बारे में कुछ जानकारी दी और फिर एक घंटे से ऊपर लगातार सितार बजाते रहे। सभी दर्शक पूरे समय बँधे ही रहे। यहाँ तक की लोगों ने उनसे और देर तक बजाने का अनुरोध किया।

खैर हमें वापिस जाना था लेकिन हमने उस्ताद की फनकारी को अपने लिए अपने छोटे से क्रिएटिव ज़ेन में रिकॉर्ड कर ही लिया। एड को एक शानदार शाम दिलाने का शुक्रिया।

अनुराग

Friday, February 16, 2007

भारत पुनर्निर्माण दल के नेताओं से मुलाकात

इस शनिवार को वर्जीनिया टेक के भारतीय कार्यक्रम में मैं आप लोगों की मुलाकात कराऊँगा एक नये राजनैतिक दल "भारत पुनर्निर्माण दल" के नेताओं से। जैसा कि मैंने अपने चिट्ठे में पहले इस दल के बारे में आप लोगों को बताया था, ये भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों के मेधावी छात्र हैं जिनकी रुचि राजनीति में आ कर देश के लिए कुछ करने की है। आपसे अनुरोध है कि कार्यक्रम को सुनें और इन मेधावी छात्रों का हर तरह से मनोबल बढ़ाएं।


कार्यक्रम अमरीका के पूर्वी समय के अनुसार दोपहर १:०० बजो से २:३० बजे तक, और भारत के रात ११:०० बजे से सुबह १:०० बजे तक सीधा प्रसारित किया जाएगा। सुनने के लिए इस कड़ी पर जाएँ और "Listen Online" पर चटका लगाएँ।

अनुराग


कार्यक्रम के बारे में अधिक जानकारी

Wednesday, February 14, 2007

मुझे चाय भी नहीं बनानी आती...

जाने कितनी बार एसा सुना है। अमरीका में भारत से आने वाले कई छात्रों के मुँह से एसा सुनने को मिलता है। भारत में भी कई बार जान पहचान में एसा सुना है। सोच कर लगता है कि हमारे माँ बाप ने बड़ा भला किया जो हमें घर के सारे काम कराए और सिखाए। मेरा मानना है कि जीवन में जितना खाना खाना आना जरूरी है, उतना ही खाना बनाना भी। इस लेख में मैं इस साधारण किंतु महत्वपूर्ण मुद्दे की तरफ ध्यान दिलाना चाहूँगा।

कई बार माता पिता अत्यधिक प्रेम में अपनी संतान (लड़का या लड़की) को घर के काम काज बिलकुल नहीं सिखाते, जिसमें खाना बनाना, सफाई, घर ठीक रखना आदि आते हैं। एसे बच्चों को जब आत्मनिर्भर होना पड़ता है तो उनकी बड़ी मुसीबत होती है। खाना बनाना ना आने के कारण, इन्हें अक्सर जंक फूड पर निर्भर होना पड़ता है। मैंने 6 महीने में लोगों को इस कारण बुरी तरह मोटाते देखा है।

खाना बनाना आ भी जाए तो बर्तन साफ करने का काम इतना लगता है कि खाना ना ही बनाएं तो अच्छा। इतने पर घर की सफाई तो लगता है कि हो ही नहीं सकती। मूत्रालय में फफूँदी तक जम जाती है, बर्तन तब तक नहीं धुलते जब तक खाना सड़ ना जाए और कीड़े ना पड़ने लगें (ये अतिशयाक्ति नहीं है), गंदे संदे अंग वस्त्र (अंडर गार्मेंट्स) दुबारा पहनने पड़ते हैं। अमरीका में तो खासकर अपने सारे काम स्वयं करने पड़ते हैं। इन सबके ऊपर समय पर बिल देना, नहीं तो क्रेडिट हिस्टरी खराब, स्वास्थ्य बीमा खत्म हो जाए तो अलग मुसीबत।

मैं समझता हूँ कि माँ बाप को बच्चों को ये सारे काम समय रहते सिखाने चाहिए और अच्छे से सिखाने चाहिए, ताकि बच्चे ना सिर्फ ये सब काम कर सकें, बल्कि तरीके से और जल्दी भी कर सकें। जिन लोगों को लिए ये सब काम कोई बड़ी बात नहीं होते और वे ये काम आसानी से कर लेते हैं, वे अपना बाकि ध्यान और समय पढ़ाई या और कामों में लगा सकते हैं।


अनुराग