Sunday, April 29, 2007

वर्जीनिया टेक की घटना और मेरे अनुभव-2

मैंने अपनी पिछली पोस्ट में वर्जीनिया टेक में हुई घटना से सम्बंधित अपने कुछ अनुभव आपसे बांटे थे। इन कई अनुभवों में से एक अनुभव था मीडिया से।

जितना मीडिया वर्जीनिया टेक में इकट्ठा हुआ था उतना जिंदगी में कभी नहीं देखा और ना देखने की इच्छा ही है। खैर समाचार देने के लिए तो लगातार प्रेस कॉन्फेरेन्स हो रही थी, मगर रिपोर्टरों को समाचार तो मालूम हो ही चुका था, अब उनको टीवी चैनल पर दिखाने के लिए कुछ भावनाएं चाहिऐ थीं। अब भावनाएं बटोरने के लिए उन्हें छात्रों से बात करनी थी, और अगर छात्र ने ये घटना खुद आंखों से देखी हो या उसका कोई सगा इस घटना में मारा गया हो तो बात ही क्या।

जिनके अच्छे जानने वालों कि इस घटना में मृत्यु हुई थी उसमें एक हम भी थे। लिहाज़ा रिपोर्टरों ने हमें खोज ही लिया। वैसे तो रोक रोक कर कुछ और रिपोर्टर भी सवाल करते थे, लेकिन कुछ खास अनुभवों कि बानगी देखिए।

१ घटना के दूसरे दिन (मंगलवार) मैं डॉ॰ लोगानाथान के घर फिर गया करीब ११ बजे सबेरे। मैंने डॉ॰ लोगानाथान कि पुत्री से बात भी की। वहाँ पता चला कि सबेरे ७ बजे से रिपोर्टर वहाँ दरवाजे पर जमा थे श्रीमती लोगानाथान से बात करने के लिए। उन लोगों को जबरदस्ती वहाँ से भगाया गया था।

२ घटना के दूसरे दिन वर्जीनिया टेक के लगभग सभी छात्र और शहर के बाक़ी लोग एक सभा में जा रहे थे। कई रिपोर्टर भी जोरदार रिकार्डिंग करने के लिए कैमरा सेट कर रहे थे। दो रिपोर्टर आस पास में कहते पाए गए कि इस जगह पर तो कोई रो नहीं रहा, चलो आगे देखते हैं।

३ स्टेडियम में चल रही सभा के बीच में एक रिपोर्टर आयी और मुझसे साक्षात्कार के लिए कहा, मैंने उनसे कहा कि सभा के बाद मिलना। बाहर जाने पर दो रिपोर्टर दिखीं। पहले एनडीटीवी वाली ने पकड़ा। उसने मुझे डॉ॰ लोगानाथान के बारे में कुछ कहने को कहा। मैंने जो पता था बता दिया। शायद वो सन्तुष्ट नहीं हुई, उसने कहा कि और बताओ, मैंने कैमरे पर ही बोला जितना बता था बोल दिया, अब झूठ नहीं बोलूँगा, वो आपका काम है। उसके बाद सी एन एन - आई बी एन वाली मेरा इंतज़ार कर रही थी। एन डी टी वी वाली ने बोला कि जो मुझे बताया, वो उसको नही बताना, मैंने खिसिया कर कहा कि मेरी बातों का भी तुमने कॉपिरइट कर रखा है क्या? खैर फिर सी एन एन -आई बी एन वाली ने मेरा साक्षात्कार लेना शुरू किया और डॉ॰ लोगानाथान के बारे में पूछा। मैंने फिर वही बताया जो मुझे पता था। फिर उसने मीनल के बारे में पूछा। अब मीनल को मैं व्यक्तिगत रुप से नहीं जानता था, और उस समय तक उसकी मृत्यु कि खबर की पुष्टि भी नहीं हुई थी। तो रिपोर्टर ने कहा कि आपको क्या लगता है, मीनल को क्या हुआ होगा? मैंने कहा कि वो सुरक्षित होगी। उसने दो तीन बार जोर देकर इस बारे में पूछा, ताकि मैं ये कहूं कि शायद वो नहीं रही। अब जिस बारे में नहीं पता उस बारे में क्यों बकवास करूं।

४ अब तक एन डी टी वी और सी एन एन - आई बी एन में एक ज़ोरदार अघोषित प्रतियोगिता थी की मीनल कि मौत कि खबर कौन पहले बताता है। (यहाँ ये बता दूं कि सी एन एन - आई बी एन वाली पहले एन डी टी वी में काम करती थी)। खैर सी एन एन - आई बी एन वाली को एन डी टी वी वाली से पहले खबर हो गयी और चैनल पर ये खबर छा गयी। इसी समय एन डी टी वी वाली के साथ मेरा मित्र था, और एन डी टी वी वाली को उसके बॉस का फ़ोन आया, और एकदम भद्दी भाषा में उसे लताड़ा गया कि कैसे सी एन एन - आई बी एन वाली को पहले खबर मिली मीनल के बारे में। फ़ोन करने वाले की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि मेरे मित्र ने लगभग सारी बात सुनी और रिपोर्टर को लगभग गिड़गिड़ाते हुए देखा और सुना।

५ उसके बाद तो जहाँ देखो वहाँ एन डी टी वी वाली नज़र आने लगी। पता चला कि वो मंगलवार सुबह चार बजे ब्लैक्बर्ग पहुंची और अपने हिन्दुस्तानी होने का वास्ता दे कर एक मेरे एक मित्र के घर में लगभग जबरदस्ती आ गयी थी। किसी और को उसने कहा की १०० डॉलर दूँगी अगर मुझे उस जगह पर कार से चक्कर पर लगावाओगे जहाँ ये घटना हुई थी। उसको मैंने एक समाजसेवी संस्था द्वारा उपलब्ध कराया गया मुफ़्त खाना खाते देखा जो कि मृतक के मित्रों और परिवारवालों के लिए था।

६ बुधवार को दिन में एक जगह पर जहाँ मृतकों कि याद के लिए लोग फूल रख रहे थी और मोमबत्तियां जला रहे थी वहाँ रिपोर्टरों का व्यवहार तो देखने वाला था। मैं जब फूल रखने गया तो बस एक दो सेकंड के समय में अगल बगल से करीब ६ कैमरा सर पर सवार हो गए। मैंने कहा यार जीने दो और जाओ यहाँ से, तो उसमें एक चला गया बाक़ी पांच सर पर सवार ही रहे (वे सब कई देशों के थे, और एक दो शायद ठीक से समझे भी ना हों)। उसी मैदान पर जहाँ लोग याद में मोमबत्तियां जला रहे थी वहीँ कुछ समूह आपस में बैठ कर बात या प्रार्थना कर रहे थे। कैमरा वाले समूह के बीच में माइक लटका कर उनकी बातें रिकार्ड करने का प्रयास कर रहे थे।

७ इतनी देर में वौइस् ऑफ अमेरिका वाले आ गए जो आज तक के लिए कार्यक्रम तैयार करते हैं। मैं फिर फँस गया। छूटते ही मैंने उनसे बोला कि ये तो सबसे घटिया चैनल है (ऐसा मैंने सी एन एन - आई बी एन वाली को भी उसके चैनल के लिए बोला था), तो उन्होंने कहा कि वो खुद ऐसा मानते हैं। खैर वे लोग व्यवहारकुशल थे और बतिया के फिर वहीँ ले गए जहाँ लोग मृतकों कि याद में फूल दे रहे थे और बडे बडे साइनबोर्डों पर मृतकों की यादों में कुछ लिख रहे थे। आज तक वाले ने कहा यार तुम फिर कुछ लिखो और हिन्दी में लिखो, ज़रा फील अच्छा आएगा। अब मैंने क्या जवाब दिया होगा आप कल्पना कर सकतें हैं।

८ जहाँ तक हत्यारे के विडियो वाली बात है जो आपमें कई लोगों ने बृहस्पतिवार को इन्टरनेट पर देखा होगा, वो मीडिया का सबसे असंवेदनशील रवैया था। मुझे बार बार यही लगता है कि कितनी चालाकी से हत्यारे ने मीडिया का इस्तेमाल करके हम लोगों को बेवक़ूफ़ बनाया।

खैर ये रहे मेरे कुछ अनुभव मीडिया को लेकर, इसमें बहुत सारी बातें मैंने छोड़ दीं क्यूंकि मैंने वो दूसरों या तीसरों से सुनी थी।

अब इसके बाद में बात करुंगा कुछ संस्कृति की, इस घटना के बाद यहाँ कैसी सभाएं हुईं, या होती हैं और लोगों ने किस प्रकार एक दूसरे कि मदद की और इस सब के बीच में मैंने क्या अनुभव किया।

राग

10 टिप्पणियाँ:

रवि रतलामी said...

"...दो रिपोर्टर आस पास में कहते पाए गए कि इस जगह पर तो कोई रो नहीं रहा, चलो आगे देखते हैं।..."

जाहिर है, आंतरिक संवेदनाओं की कहीं कोई कीमत नहीं. ड्रामा के लेवाल और बिकवाल हर कहीं होते हैं.

Srijan Shilpi said...

मैं अनुमान कर सकता हूं कि आपका यह पहला निकट से महसूस किया गया अनुभव, खासकर मीडिया के असली चेहरे के बारे में, आपके भीतर कैसी प्रतिक्रियाएं जगाता होगा।

निष्ठुर संवेदनाओं के माहौल में काम करने वाले हमारे टीवी पत्रकार ऐसे हादसों की ख़बर पर ऐसे ही टूट पड़ते हैं, जैसे मरी हुई लाश पर गिद्ध।

अनूप शुक्ल said...

लड़की जो खबर के लिये १०० डालर की पेशकश कर रही थी खुद खैरात का खाना खाने को मजबूर थी यह बात बहुत कुछ कहती है!

Udan Tashtari said...

आज तक वाले ने कहा यार तुम फिर कुछ लिखो और हिन्दी में लिखो, ज़रा फील अच्छा आएगा।

--अब क्या कहें इनका :(

हिंदी ब्लॉगर/Hindi Blogger said...

मीडिया के आंतरिक पक्ष से अपरिचित पाठकों के लिए आपका अनुभव निश्चय ही हतप्रभ कर देने वाला है. अपना अनुभव बाँटने के लिए धन्यवाद!

वैसे, हमें लगता है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस तरह की संवेदनहीनता प्रिंट मीडिया के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है.

Pratik Pandey said...

आपका यह अनुभव व्यथित करने वाला है। आज के दौर में मानो सम्वेदनशीलता ख़त्म हो चुकी है और इससे मीडिया भी अछूता नहीं है। इस सवाल को गहरे में समझने की ज़रूरत है कि आख़िर ऐसा क्यों है? कौन इसके लिए ज़िम्मेदार है? और बदलाव के लिए क्या किया जा सकता है?

ज्ञानदत्त पाण्डेय/Gyandutt Pandey said...

मुझे तो उस लड़की (रिपोर्टर) पर तरस आ रहा है. यह पहली बार है जब किसी मीडिया वाले पर तरस आया है.

Anonymous said...

तेज़गीरी का दबाव, गलाकाट स्पर्धा मे पिसा पत्रकार और मौक़े से रिपोर्टिंग करते करते संवेदनशून्य हो चुका होता है. जैसे कफ़न-ताबूत बेचने वाला तमन्ना करता है कि कहीं कोई मरे तो बिकवाली हो- ठीक उसी तरह की कामना रिपोर्टर करने लगा है. यह टीआरपी और स्टार रिपोर्टर बनने की लालसा है. संवेदना और सूचना में संतुलन बिठाना सही रिपोर्टर की निशानी है. किंतु ऐसी असाधारण प्रतिभा हर किसी के बूते की बात नहीं.

eSwami said...

शायद मुफ़्त का खाना खाने को मजबूर रिपोर्टर का लाजिक होगा की खाना लेने जाने के लिये कैंपस क्यूं छोडूं!

बॉस का डण्डा, मीडिया वाले अपने वालों तक को नही छोडते फ़िर दूसरों की क्या बिसात!

इन मीडियाकर्मियों से किसी किस्म की कोई सहानुभूति नही होती.

Ashish Mishra said...

I feel now days media is not concerned about victim's sentiments..all are business oriented... Good job Anurag..