Tuesday, March 13, 2007

आओ जज करें

कई दिन से इस मुद्दे पर लिखने की सोच रहा था, एक दो बार इसी समस्या से पाला पड़ा तो सोचा अब मन की भड़ास निकाल ही दूँ। इंसान की शायद ये सबसे बड़ी कमियोॆ में से एक है, किसी व्यक्ति को, किसी वस्तु को तुरंत जज कर देना। इस हरकत के हममें से सभी शिकार हैं और जल्दी कोई भी मानेगा भी नहीं ।

खैर, मेरा ये समझना है कि हम अपने छोटे से दिमाग में कुछ खाँचे सदैव बना कर चलते हैं। इन खाँचों में समय के अनुसार बदलाव आ सकता है, मगर मामूली। जैसे जैसे हमें लोग मिलते हैं या कोई वस्तु, हम अपनी छोटी सी समझ से उसको किसी एक खाँचे में फिट कर लेते हैं।अब फिर वो दूसरा आदमी लाख सफाई देले लेकिन आप उसे उस खाँचे से निकालेंगे नहीं। उदाहरण के तौर पर, मैं सवर्ण (जिसका मेरे लिए यूँ तो खास मतलब नहीं, फिर भी) हूँ। अब यदि मैं आरक्षण जैसे मुद्दे पर विरोध दर्ज कराऊँ तो इसका सीधा मतलब ये हो गया कि मैं जाति पाति मानता हूँ, हजारों साल से मैं खुद ही दलित जातियों का दमन करता आ रहा हूँ आदि आदि। अब चाहे मैं सिर पीटता रह जाऊँ कि भैया समाज की बराबरी के पक्ष में मैं भी हूँ, और जाति पाति में भरोसा नहीं करता, और सामाजिक समता के लिए कोई दूसरा तरीका बेहतर समझता हूँ। लेकिन हम तो जज कर लिए गए हैं, अब कर लो जो करना है।

अभी ब्लॉग जगत में सिर फुटौवल हुई थी, कभी गाँधी - सुभाष को लेकर, कभी हिन्दु - मुस्लिम को। अपने जोश में सबने हर एक को सुविधानुसार खाँचे में फिट किया और फिर जितनी बात लिखी जाती थी उससे ज्यादा समझी जाती थी। जो होना था सो हुआ। रोज़मर्रा के ही जीवन में हम स्वयं एसी गलतियों के कई बार शिकार होते हैं। आँखें बंद करके सोचिए कि पिछले हफ्ते में हम कितने नए लोगों से मिले, कितनों को जज किया, और कितनों को नकारात्मक रूप में जज किया। नकारात्मक बातों में एक खास बात और होती है, जैसे ही आप किसी को नकारात्मक रूप में जज कर लें तो आपको उस बात के साक्ष्य भी तुरंत मिलने लगेंगे। एक सबसे बढ़िया उदाहरण चाहे तो आजमा कर देख लीजिए, अगल बगल के किसी आदमी या औरत के चरित्र के संबंध में खुद से सवाल उठा कर देखिए। देखिए मन में कैसे कूड़ा बढ़ता है और सामान्य सी बातें संदेहास्पद हो जाती हैं।

इस बारे में मेरी एक मित्र से भी बहस हो रही थी। मुझे तो खैर ये समझ आया है कि हर एक मनुष्य किसी भी परिस्थिति में जो करता है उसके पीछे कई कारण होते हैं, कुछ कारण आनुवांशिक होते हैं, कुछ अनुभव और परिवेश के कारण और कुछ क्रियाएं त्वरित उत्पन्न होती हैं। हम जब तक किसी को बहुत ही अच्छी तरह ना जानें हमें जज करने से बचना चाहिए, खासकर नकारात्मक तौर पर। यदि नकारात्मक तौर पर जज कर भी दिया तो भी दिमाग खुला रखना ताहिए। मेरी कोशिश ये रहती है कि मैं साधारण तौर पर किसी परिस्थिति पर मौके के अनुसार ही प्रक्रिया करूँ और पुराने पूर्वाग्रहों को बाधा नहीं डालने दूँ। गाँधी जी का ये कथन काफी हद तक सही है "पाप से घृणा करो पापी से नहीं।"

शायद यही कारण है कि कुछ लोगों से कभी लड़ाई होने पर भी वो आज मेरे मित्र हैं।

अब देखिए और अपने दिमाग के खाँचों में जो बेवजह फँस गए हैं उन्हें निकालिए। जैसे कई मित्र, कोई ब्लॉगर, कोई शिक्षक, एडवाइज़र, दुकानवाला, सब्जीवाला और ना जाने कौन कौन।

राग

एसी रही हमारी होली।

होली तो इस बार भी बड़ी जम कर खेली हर बार की तरहसोचा आपको भी वर्चुअल होली खिला देंहमारी श्रीमती जी इस बार हमारे साथ नहीं थी, तो हम यहाँ अकेले ही थे, और बिना दाढ़ी बनाए घूम सकते थे। बाकि के चित्र यहाँ हैं। लोग आते गए और होली खेल कर खा पी कर जाते गए, इसी खेलाखेली में जितने चित्र खींच सका, प्रस्तुत हैं।
पहले दोनों चित्र इस आश्चर्य में कि ये बच्ची मुझे देख कर डरी नहीं।






राग

Saturday, March 10, 2007

आरक्षण के मुद्दे के जवाब पर कुछ जवाब

प्रदीप जी ने मेरे पिछले लेख पर कुछ टिपण्णी की। प्रदीप जी पहले तो इतनी लंबी टिपण्णी का धन्यवाद कि आपने अपना पूरा पक्ष सामने रखा है। मैं बड़ी पोस्ट नहीं लिख पाता, तो कोशिश करूंगा कि छोटे में अपनी बात कह सकूं।

सबसे पहले तो मैं यह साफ कर दूं कि समाज के समान रुप से विकास को मैं स्वयं सबसे बड़ी प्राथमिकता देता हूँ। आप बहस का दायरा बिना छोटा किये भी अपने बिन्दु स्पष्ट कर सकते हैं। यह शत प्रतिशत सही है कि सवर्णों ने कई सदियों से नीची जाती के लोगों का शोषण किया है, और यही एक बड़ा कारण है कि इन जातियों कि समाज में हिस्सेदारी बहुत कम है। जब आरक्षण आजादी के बाद लगाया गया था, तब भी समाज कि संविधान निर्माताओ कि यहीं धारणा थी। किन्तु पिछले ५०-६० सालों में हमारा समाज बड़ी तेजी से बदला है और विकासोंमुखी हुआ है।

इस बदलते समाज में जिसमें मौका छीनने की कूवत थी, या जिसे मौका मिला वो आगे बढ़ गया। जिनको मौका नहीं मिला या नहीं मिल पाया वो पीछे रह गए। मौका ना मिल पाने का कारण गरीबी, अशिक्षा, जाती व्यवस्था, सरकार कि पूरे देश तक बराबर विकास कर पाने कि नाकामी, आदि कई कारण थे. उदाहरण के तौर पर; सब लोग जानते हैं कि उत्तर पूर्वी राज्यों में सरकार का कैसा रवैया है और वो जगहें बाकी देश तक से पीछे रह जा रही हैं। अब अगर वहाँ का कोई बाशिंदा समाज में आगे नहीं बढ़ पाया तो उसका ज्यादा बड़ा दोष वहाँ कि सरकारी नीतियाँ रहेंगी, ना कि उसकी जाती।

खैर यहाँ तक तो वो बातें थी जिसपर हम दोनों, या और भी कई लोग सहमत हैं। आपने ये पूछा कि कोई ठोस विकल्प भी होना चाहिऐ, अगर हम वर्तमान व्यवस्था का विरोध करते हैं। जो मैं सुझाव देने जा रहा हूँ, ये मात्रा एक छोटा सा खांचा है जिसको बहुत सारे तरीकों से प्रस्तुत किया जा सकता है, बढ़ाया जा सकता है, और लागू किया जा सकता है। इन सुझावों को आप या कोई भी बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़ें, इसे ये देख कर ना पढ़ें कि इसे किस जाती के आदमी ने लिखा है। बस ये सोच के पढ़ें कि इसे एक देशभक्त ने लिखा है जो आपकी ही तरह पूरे समाज कि उन्नति चाहता है।

१ सभी प्राथमिक, उच्च और शोध विद्यालयों और विश्विद्यालयों में २५% आरक्षण गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के लिए। अब इसको २५ कि जगह २० या ३० या ४० किया जा सकता है मगर वो मेरे कार्यक्षेत्र से बाहर का फैसला है। इस फैसले को चरणबद्ध तरीके से लागू किया जा सकता है, और लोग बेईमानी ना कर सकें नकली प्रमाण पत्र बनाकर इसका भी प्रावधान किया जा सकता है। और भी कई हिस्से जोड़े जा सकते हैं अधिक शोध करके।

२ गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले प्रत्याशियों से फ़ीस ना ली जाये, और उनके लिए वजीफे के बंदोबस्त भी किये जाएँ।

३ भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों में प्राथमिक शिक्षा का अधिकार जोड़ा जाये (अब इसके लिए बुनियादी ढाँचे का रोना नहीं रोया जा सकता)

३ सभी प्राथमिक शिक्षकों की तनख्वाह और मिलने वाले मुआवजे में वृद्धि। प्राथमिक शिक्षक के कैरीयर को ज्यादा आकर्षक बनाया जाये।

४ भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में सीटें बढ़ाने का फैसला सही है, और उसे किया ही जाना चाहिऐ (बल्कि इस फैसले को लगाने में हम कई साल पीछे हैं ), किन्तु चरणबद्ध तरीके से और योजनाबद्ध तरीके से (ये तो ज़रूरी है ही, चाहे आरक्षण हो या ना हो)

और भी प्रावधान किये जा सकते हैं, जोड़े जा सकते हैं जिसे सामान्य ज्ञान अनुमति दे।

क्या ये योजना ठीक है, या फिर जाती के आधार पर समाज को बांटने कि साजिश, ऐसे लोगों द्वारा जिन्हें समाज के विकास से ज्यादा अपने वोट बैंक की ज्यादा चिंता है, या फिर इतिहास कि किताबों में अमर हो जाने की चिंता??

राग

अपनी बात कहते हुए मेरे दिमाग में एक बात और आयी कि कॉङ्गरेस कि सरकार ने शिक्षा के मुद्दे को मूल अधिकारों में जोड़े जाने कि बात नहीं की, और इसका दोष हमेशा बुनियादी ढाँचे कि कमी को बताया गया, मगर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण कि बात हुई तो कहा गया कि सभी शिक्षण संस्थानों में साल में इंतज़ाम कर दिया जाएगा, और इसके लिए खीसें से ३५ हज़ार करोड़ रुपये भी निकल आये...

भारत पुनर्निमाण दल की आने वाले चुनावों कि तैयारी

संपादित: ये घोषणा छपी है भापुद के जालस्थल पर उप्र के चुनावों के संदर्भ में।

जैसे कि आपमें से कइयों ने पढ़ा और सुना कि मैंने भारत पुनर्निमाण दल के उपाध्यक्ष श्री रवि किशोर जी का साक्षात्कार लिया था जो कि मैंने यहाँ पर पोस्ट किया है। रोजाना कि हिट्स से तो लगा कि काफी लोगों ने इस साक्षात्कार को सुना या पढ़ा है। खैर भापुद ने उत्तर प्रदेश में चुनावों में उतरने कि घोषणा कर ही दी है करीब २५-३० सीटों पर प्रत्याशी घोषित किये गए हैं। लखनऊ से भापुद के अध्यक्ष श्री अजित शुक्ल ही चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं।

कभी कभी लगता है कि देश को नयी पार्टी कि क्या ज़रूरत है, लेकिन साथ ही ये भी एहसास होता है कि अगर कल को वोट देने जाऊं तो किसे दूंगा वोट? कॉंग्रेस, बीजेपी, सपा, या बसपा ? नए विचारों से भरी हुए नए लोग ज़रूर ही कुछ नयी चीज़ें लेके आएंगे और कुछ नया करने कि हिम्मत भी। कम से कम अब ७०-८० साले के वृद्ध लोगों से शासित होने कि इच्छा तो बिल्कुल भी नहीं है।

खैर मेरी तो इस नयी पार्टी को शुभकामनाएं हैं। अगर उप्र में होता तो साथ भी ज़रूर देता इन लोगों का। मुझे रवि से साक्षात्कार में उनकी कुछ कही हुई बातें खास तौर पर पसंद आयी जिसे में यहाँ वैसा का वैसा अनुवादित कर दे रहा हूँ, अर्थ आप स्वयं लगायें :)।

"भारत का विकास आजादी के बाद से कोई बहुत योजानाबद्ध तरीके से नहीं हुआ है"

-ये समझाते हुए कि भारत पुनर्निमाण दल के नाम का मतलब क्या है

"राजनीति में आने के लिए प्रेरित होना मुश्किल नहीं है... प्रेरणा बड़ी आसानी से जाती हैहमारे देश की जनसंख्या अरब है, और ज़रा सदन में बैठे ५४३ लोगों को देखो या किसी भी राज्य कि सदन में बैठे लोगों का विश्लेषण करोअपने आप को ये समझाना बड़ा आसान है कि हम इनसे बहुत बेहतर नेता दे सकते हैं"

-राजनीति में आने कि प्रेरणा के बारे में पूछने के बारे में

"तंत्र इतना भ्रष्ट है और कोई इसके लिए कुछ नहीं कर रहा है, ये अपने आप में एक प्रेरणा है"

-ये पूछने पर कि इतने भ्रष्ट तंत्र में घुस कर लड़ने कि प्रेरणाशक्ति कहाँ से आती है


राग

Friday, March 09, 2007

आरक्षण - पुनः बढ़ती बहस

चूंकि अब खबर थोड़ी पुरानी होती जा रही है इसलिये इस मुद्दे पर बहस भी कम होती जा रही है, किन्तु आरक्षण का मुद्दा आज भी वहीँ पर है जहाँ करीब ६-७ महिने पहले था। सर्वोच्च न्यायालय में इस पर बहस अब पूरी हो चुकी है और न्यायालय ने अपना फैसला सुरक्षित रखा हुआ है।

यद्यपि अकल से देखा जाये तो ये आरक्षण का मुद्दा पूर्णतया मूर्खता भरा है लेकिन ये मनमोहन जी कि सरकार जो ना कराए वो थोड़ा ही है। आरक्षण के अनुभव को एक सफल अनुभव मानने वाले एक समाजशास्त्री श्री योगेंद्र यादव जी भी यही मानते हैं कि इस प्रकार आरक्षण लगाना मूर्खता है इकॉनोमिक टाइम्स में इस सिलसिले में बढ़िया रिपोर्ट है जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं इसमें बताया गया है कि अदालत कैसे इस सरकार से फिर वही सामान्य ज्ञान के सवाल पूछ रही है कि कैसे १९३१ के आधे अधूरे आंकणे को इस्तेमाल करते २००७ में आरक्षण लगाया जा रह है? क्या जल्दी थी कि सरकार ने ज़रूरी जानकारी जुटाना उचित नहीं समझा?

आरक्षण कि मूल भावना से मुझे भी कुछ गुरेज नहीं है। समाज के पिछड़े तबके को मौका दिया जान चाहिऐ कि वो आगे बढ़ सके, लेकिन इसके लिए "जितने काले सब मेरे बाप के साले" वाला तरीका क्यों अपनाया जा रह है ये मेरी समझ के बाहर है। पिछड़ापन गरीबी और अशिक्षा के कारण आता है, जहाँ तक जाती का मुद्दा है, ये बात ३०-४० साले पहले सही थी, मगर अब उतनी सही नहीं रही। एक व्यक्ति जो कि जाती से ब्राह्मण है अगर वो गरीब है तो अपने बच्चे को बड़े संस्थान में नहीं पढ़ा सकता, मगर एक रईस आदमी चाहे किसी भी जाती को अपने बच्चे को जितने चाहे मौक़े दिला सकता है।

फिर सोचता हूँ कि ये बातें मैं क्यों कर रह हूँ ? ये तो सामान्य ज्ञान कि बातें हैं, जो कब्र में पैर लटकाए अर्जुन सिंह जैसो को क्यों समझ आएगी, जिनको मरते मरते मसीहा बन के मरना है। सठियाने कि उमर से आगे जाके लोग हम पर राज करके हमारे चहरे पर चपत लगा रहे हैं और हम देख राहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय कि बात जोह रहे हैं, कि शायद उसी से अब उम्मीद बची है। विकास कि बात तो छोड़ो ये सरकार सामान्य ज्ञान को धता बता रही है। एक तरफ विकास के नाम पर बिना ठीक से मुआवजा दिए जमीन छीनती है गरीबों की और ऊपर से आरक्षण का लोलिपोप दिखाती है।

खैर मैं बेसब्री से सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय का इंतज़ार कर रहा हूँ, आप भी करिये (और कर भी क्या सकेंगे?)

राग

Thursday, March 08, 2007

ब्लॉगर पर हिंदी का ट्रान्सलिट्रेशन टूल प्रयोग का prayas

हाँ भैया, तो हम ब्लॉगर का ट्रान्सलिट्रेशन टूल का प्रयोग करके ये ब्लॉग पोस्ट कर रहे हैं। मज़ा आ गया क़सम से इससे लिखने में। ये तो सच में बड़ी मजेदार स्टाइल है, और कंप्यूटर में किसी सेटिंग को बदलने कि भी कोई ज़रूरत नहीं है। यानी कि अब किसी भी कंप्यूटर पर बैठ कर इसे इस्तेमाल किया जा सकता है।

समीर जी की भाषा में जीतू भाई को इस खबर का खुलासा करने के लिए साधुवाद।

राग

बल्ले बल्ले