Saturday, March 10, 2007

आरक्षण के मुद्दे के जवाब पर कुछ जवाब

प्रदीप जी ने मेरे पिछले लेख पर कुछ टिपण्णी की। प्रदीप जी पहले तो इतनी लंबी टिपण्णी का धन्यवाद कि आपने अपना पूरा पक्ष सामने रखा है। मैं बड़ी पोस्ट नहीं लिख पाता, तो कोशिश करूंगा कि छोटे में अपनी बात कह सकूं।

सबसे पहले तो मैं यह साफ कर दूं कि समाज के समान रुप से विकास को मैं स्वयं सबसे बड़ी प्राथमिकता देता हूँ। आप बहस का दायरा बिना छोटा किये भी अपने बिन्दु स्पष्ट कर सकते हैं। यह शत प्रतिशत सही है कि सवर्णों ने कई सदियों से नीची जाती के लोगों का शोषण किया है, और यही एक बड़ा कारण है कि इन जातियों कि समाज में हिस्सेदारी बहुत कम है। जब आरक्षण आजादी के बाद लगाया गया था, तब भी समाज कि संविधान निर्माताओ कि यहीं धारणा थी। किन्तु पिछले ५०-६० सालों में हमारा समाज बड़ी तेजी से बदला है और विकासोंमुखी हुआ है।

इस बदलते समाज में जिसमें मौका छीनने की कूवत थी, या जिसे मौका मिला वो आगे बढ़ गया। जिनको मौका नहीं मिला या नहीं मिल पाया वो पीछे रह गए। मौका ना मिल पाने का कारण गरीबी, अशिक्षा, जाती व्यवस्था, सरकार कि पूरे देश तक बराबर विकास कर पाने कि नाकामी, आदि कई कारण थे. उदाहरण के तौर पर; सब लोग जानते हैं कि उत्तर पूर्वी राज्यों में सरकार का कैसा रवैया है और वो जगहें बाकी देश तक से पीछे रह जा रही हैं। अब अगर वहाँ का कोई बाशिंदा समाज में आगे नहीं बढ़ पाया तो उसका ज्यादा बड़ा दोष वहाँ कि सरकारी नीतियाँ रहेंगी, ना कि उसकी जाती।

खैर यहाँ तक तो वो बातें थी जिसपर हम दोनों, या और भी कई लोग सहमत हैं। आपने ये पूछा कि कोई ठोस विकल्प भी होना चाहिऐ, अगर हम वर्तमान व्यवस्था का विरोध करते हैं। जो मैं सुझाव देने जा रहा हूँ, ये मात्रा एक छोटा सा खांचा है जिसको बहुत सारे तरीकों से प्रस्तुत किया जा सकता है, बढ़ाया जा सकता है, और लागू किया जा सकता है। इन सुझावों को आप या कोई भी बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़ें, इसे ये देख कर ना पढ़ें कि इसे किस जाती के आदमी ने लिखा है। बस ये सोच के पढ़ें कि इसे एक देशभक्त ने लिखा है जो आपकी ही तरह पूरे समाज कि उन्नति चाहता है।

१ सभी प्राथमिक, उच्च और शोध विद्यालयों और विश्विद्यालयों में २५% आरक्षण गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के लिए। अब इसको २५ कि जगह २० या ३० या ४० किया जा सकता है मगर वो मेरे कार्यक्षेत्र से बाहर का फैसला है। इस फैसले को चरणबद्ध तरीके से लागू किया जा सकता है, और लोग बेईमानी ना कर सकें नकली प्रमाण पत्र बनाकर इसका भी प्रावधान किया जा सकता है। और भी कई हिस्से जोड़े जा सकते हैं अधिक शोध करके।

२ गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले प्रत्याशियों से फ़ीस ना ली जाये, और उनके लिए वजीफे के बंदोबस्त भी किये जाएँ।

३ भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों में प्राथमिक शिक्षा का अधिकार जोड़ा जाये (अब इसके लिए बुनियादी ढाँचे का रोना नहीं रोया जा सकता)

३ सभी प्राथमिक शिक्षकों की तनख्वाह और मिलने वाले मुआवजे में वृद्धि। प्राथमिक शिक्षक के कैरीयर को ज्यादा आकर्षक बनाया जाये।

४ भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में सीटें बढ़ाने का फैसला सही है, और उसे किया ही जाना चाहिऐ (बल्कि इस फैसले को लगाने में हम कई साल पीछे हैं ), किन्तु चरणबद्ध तरीके से और योजनाबद्ध तरीके से (ये तो ज़रूरी है ही, चाहे आरक्षण हो या ना हो)

और भी प्रावधान किये जा सकते हैं, जोड़े जा सकते हैं जिसे सामान्य ज्ञान अनुमति दे।

क्या ये योजना ठीक है, या फिर जाती के आधार पर समाज को बांटने कि साजिश, ऐसे लोगों द्वारा जिन्हें समाज के विकास से ज्यादा अपने वोट बैंक की ज्यादा चिंता है, या फिर इतिहास कि किताबों में अमर हो जाने की चिंता??

राग

अपनी बात कहते हुए मेरे दिमाग में एक बात और आयी कि कॉङ्गरेस कि सरकार ने शिक्षा के मुद्दे को मूल अधिकारों में जोड़े जाने कि बात नहीं की, और इसका दोष हमेशा बुनियादी ढाँचे कि कमी को बताया गया, मगर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण कि बात हुई तो कहा गया कि सभी शिक्षण संस्थानों में साल में इंतज़ाम कर दिया जाएगा, और इसके लिए खीसें से ३५ हज़ार करोड़ रुपये भी निकल आये...

2 टिप्पणियाँ:

Brijesh meena said...

चलो आपने यह तो स्वीकार किया कि इन जातियों कि समाज में हिस्सेदारी बहुत कम है। परन्तु आपका यह कहना कि ५०-६० सालों में इन जातियों में विकास बहुत हुआ है,गलत है। बंद कमरों में बैठकर हम इनके विकास का आंकलन नही कर सकते इसके लिये हमें इनके नजदीक जाकर जानना होगा कि क्या ये वास्तव में विकसित हुए है।

Raag said...

मैंने एसा कब कहा कि इन जातियों का विकास हुआ है। मैंने तो ये कहा कि "मौका ना मिल पाने का कारण गरीबी, अशिक्षा, जाती व्यवस्था, सरकार कि पूरे देश तक बराबर विकास कर पाने कि नाकामी, आदि कई कारण थे"।

वैसे यदि आप मेरे द्वारा बताए गए वैकल्पिक उपाय पर भी टिप्पणी करते तो बढ़िया होता।