कई दिन से इस मुद्दे पर लिखने की सोच रहा था, एक दो बार इसी समस्या से पाला पड़ा तो सोचा अब मन की भड़ास निकाल ही दूँ। इंसान की शायद ये सबसे बड़ी कमियोॆ में से एक है, किसी व्यक्ति को, किसी वस्तु को तुरंत जज कर देना। इस हरकत के हममें से सभी शिकार हैं और जल्दी कोई भी मानेगा भी नहीं ।
खैर, मेरा ये समझना है कि हम अपने छोटे से दिमाग में कुछ खाँचे सदैव बना कर चलते हैं। इन खाँचों में समय के अनुसार बदलाव आ सकता है, मगर मामूली। जैसे जैसे हमें लोग मिलते हैं या कोई वस्तु, हम अपनी छोटी सी समझ से उसको किसी एक खाँचे में फिट कर लेते हैं।अब फिर वो दूसरा आदमी लाख सफाई देले लेकिन आप उसे उस खाँचे से निकालेंगे नहीं। उदाहरण के तौर पर, मैं सवर्ण (जिसका मेरे लिए यूँ तो खास मतलब नहीं, फिर भी) हूँ। अब यदि मैं आरक्षण जैसे मुद्दे पर विरोध दर्ज कराऊँ तो इसका सीधा मतलब ये हो गया कि मैं जाति पाति मानता हूँ, हजारों साल से मैं खुद ही दलित जातियों का दमन करता आ रहा हूँ आदि आदि। अब चाहे मैं सिर पीटता रह जाऊँ कि भैया समाज की बराबरी के पक्ष में मैं भी हूँ, और जाति पाति में भरोसा नहीं करता, और सामाजिक समता के लिए कोई दूसरा तरीका बेहतर समझता हूँ। लेकिन हम तो जज कर लिए गए हैं, अब कर लो जो करना है।
अभी ब्लॉग जगत में सिर फुटौवल हुई थी, कभी गाँधी - सुभाष को लेकर, कभी हिन्दु - मुस्लिम को। अपने जोश में सबने हर एक को सुविधानुसार खाँचे में फिट किया और फिर जितनी बात लिखी जाती थी उससे ज्यादा समझी जाती थी। जो होना था सो हुआ। रोज़मर्रा के ही जीवन में हम स्वयं एसी गलतियों के कई बार शिकार होते हैं। आँखें बंद करके सोचिए कि पिछले हफ्ते में हम कितने नए लोगों से मिले, कितनों को जज किया, और कितनों को नकारात्मक रूप में जज किया। नकारात्मक बातों में एक खास बात और होती है, जैसे ही आप किसी को नकारात्मक रूप में जज कर लें तो आपको उस बात के साक्ष्य भी तुरंत मिलने लगेंगे। एक सबसे बढ़िया उदाहरण चाहे तो आजमा कर देख लीजिए, अगल बगल के किसी आदमी या औरत के चरित्र के संबंध में खुद से सवाल उठा कर देखिए। देखिए मन में कैसे कूड़ा बढ़ता है और सामान्य सी बातें संदेहास्पद हो जाती हैं।
इस बारे में मेरी एक मित्र से भी बहस हो रही थी। मुझे तो खैर ये समझ आया है कि हर एक मनुष्य किसी भी परिस्थिति में जो करता है उसके पीछे कई कारण होते हैं, कुछ कारण आनुवांशिक होते हैं, कुछ अनुभव और परिवेश के कारण और कुछ क्रियाएं त्वरित उत्पन्न होती हैं। हम जब तक किसी को बहुत ही अच्छी तरह ना जानें हमें जज करने से बचना चाहिए, खासकर नकारात्मक तौर पर। यदि नकारात्मक तौर पर जज कर भी दिया तो भी दिमाग खुला रखना ताहिए। मेरी कोशिश ये रहती है कि मैं साधारण तौर पर किसी परिस्थिति पर मौके के अनुसार ही प्रक्रिया करूँ और पुराने पूर्वाग्रहों को बाधा नहीं डालने दूँ। गाँधी जी का ये कथन काफी हद तक सही है "पाप से घृणा करो पापी से नहीं।"
शायद यही कारण है कि कुछ लोगों से कभी लड़ाई होने पर भी वो आज मेरे मित्र हैं।
अब देखिए और अपने दिमाग के खाँचों में जो बेवजह फँस गए हैं उन्हें निकालिए। जैसे कई मित्र, कोई ब्लॉगर, कोई शिक्षक, एडवाइज़र, दुकानवाला, सब्जीवाला और ना जाने कौन कौन।
राग |
4 टिप्पणियाँ:
आपने आसान अल्फ़ाज़ में बहुत गहरी बात कही है। सीखने के लिए यह बहुत बड़ा पाठ है, साथ ही ज़रूरी भी।
" हर एक मनुष्य किसी भी परिस्थिति में जो करता है उसके पीछे कई कारण होते हैं, कुछ कारण आनुवांशिक होते हैं, कुछ अनुभव और परिवेश के कारण और कुछ क्रियाएं त्वरित उत्पन्न होती "
आपसे पूरी तरह सहमत हूँ अनुराग भैया
आपकी बात सामान्य संदर्भ में तो उपयुक्त है ही, हिन्दी चिट्ठा जगत में हो रही ताज़ा हलचल के परिप्रेक्ष्य में और भी समीचीन है।
अच्छे विचार हैं। वैसे मुझे तुम्हारी निष्पक्ष समझ का एहसास होता है। मैंने एक बार कुछ बातें पूंछी थी तो बिना किसी लागलपेट के तुमने अपनी राय जाहिर की थी। उनमें से एकाध मेरी सोच के खिलाफ़ भी थीं यह जानते हुये भी तुमने उनको कहा। ऐसे ही समय-समय पर ज्ञान बांटते रहा करो।
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