चूंकि अब खबर थोड़ी पुरानी होती जा रही है इसलिये इस मुद्दे पर बहस भी कम होती जा रही है, किन्तु आरक्षण का मुद्दा आज भी वहीँ पर है जहाँ करीब ६-७ महिने पहले था। सर्वोच्च न्यायालय में इस पर बहस अब पूरी हो चुकी है और न्यायालय ने अपना फैसला सुरक्षित रखा हुआ है।
यद्यपि अकल से देखा जाये तो ये आरक्षण का मुद्दा पूर्णतया मूर्खता भरा है लेकिन ये मनमोहन जी कि सरकार जो ना कराए वो थोड़ा ही है। आरक्षण के अनुभव को एक सफल अनुभव मानने वाले एक समाजशास्त्री श्री योगेंद्र यादव जी भी यही मानते हैं कि इस प्रकार आरक्षण लगाना मूर्खता है। इकॉनोमिक टाइम्स में इस सिलसिले में बढ़िया रिपोर्ट है जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं। इसमें बताया गया है कि अदालत कैसे इस सरकार से फिर वही सामान्य ज्ञान के सवाल पूछ रही है कि कैसे १९३१ के आधे अधूरे आंकणे को इस्तेमाल करते २००७ में आरक्षण लगाया जा रह है? क्या जल्दी थी कि सरकार ने ज़रूरी जानकारी जुटाना उचित नहीं समझा?
आरक्षण कि मूल भावना से मुझे भी कुछ गुरेज नहीं है। समाज के पिछड़े तबके को मौका दिया जान चाहिऐ कि वो आगे बढ़ सके, लेकिन इसके लिए "जितने काले सब मेरे बाप के साले" वाला तरीका क्यों अपनाया जा रह है ये मेरी समझ के बाहर है। पिछड़ापन गरीबी और अशिक्षा के कारण आता है, जहाँ तक जाती का मुद्दा है, ये बात ३०-४० साले पहले सही थी, मगर अब उतनी सही नहीं रही। एक व्यक्ति जो कि जाती से ब्राह्मण है अगर वो गरीब है तो अपने बच्चे को बड़े संस्थान में नहीं पढ़ा सकता, मगर एक रईस आदमी चाहे किसी भी जाती को अपने बच्चे को जितने चाहे मौक़े दिला सकता है।
फिर सोचता हूँ कि ये बातें मैं क्यों कर रह हूँ ? ये तो सामान्य ज्ञान कि बातें हैं, जो कब्र में पैर लटकाए अर्जुन सिंह जैसो को क्यों समझ आएगी, जिनको मरते मरते मसीहा बन के मरना है। सठियाने कि उमर से आगे जाके लोग हम पर राज करके हमारे चहरे पर चपत लगा रहे हैं और हम देख राहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय कि बात जोह रहे हैं, कि शायद उसी से अब उम्मीद बची है। विकास कि बात तो छोड़ो ये सरकार सामान्य ज्ञान को धता बता रही है। एक तरफ विकास के नाम पर बिना ठीक से मुआवजा दिए जमीन छीनती है गरीबों की और ऊपर से आरक्षण का लोलिपोप दिखाती है।
खैर मैं बेसब्री से सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय का इंतज़ार कर रहा हूँ, आप भी करिये (और कर भी क्या सकेंगे?)
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2 टिप्पणियाँ:
भला आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करने में क्या दिक्कत है। सबके साथ इंसाफ होगा और असल जरुरतमंद तक मदद पहुँचेगी।
हरियाणा सरकार में कई दलित मंत्री हैं उनके पुत्र पुत्रियाँ भी आरक्षण का लाभ ले रहे हैं, ये कहाँ का न्याय है। दूसरी तरफ गांवों में दलित दसवीं कक्षा से आगे तो पढ़ ही नहीं पाते अतः आरक्षण का लाभ ले नहीं पाते।
लेकिन बात तो यह है न कि इन नेताओं को वोट के लालच ने अंधा कर रखा है वरना अक्ल तो इन्हें भी है।
यह सही है कि आरक्षण का मुद्दा भारत में राजनीतिज्ञों के लिए वोटबैंक को बढ़ाने और बरकरार रखने का हथियार बन चुका है। यह भी सही है कि आरक्षण के प्रावधान से विकास की रफ्तार बाधित होती है। यह भी सही है कि आरक्षण के कारण कुछ योग्य लोग बेहतर अवसरों के लाभ से वंचित रह जाते हैं और उनके स्थान पर अपेक्षाकृत कम योग्य लोगों को वह अवसर मिल जाता है। यह भी सही है कि आरक्षण एक अस्थायी उपाय है जिसे लंबे समय तक लागू नहीं रखा जाना चाहिए। यह भी सही है कि आरक्षण के प्रावधान से जाति-आधारित कटुता बढ़ रही है जिससे सामाजिक समरसता स्थापित करने में अधिक दिक्कत आएगी। कोई भी विवेकशील व्यक्ति उपर्युक्त तथ्यों से असहमत नहीं हो सकता। लेकिन इससे पहले कि आरक्षण के विरोध में आप कोई मोर्चाबंदी करने के लिए निकलें,
आपके पास इसका कोई बेहतर और ठोस विकल्प अवश्य होना चाहिए। जिन लोगों को ‘आरक्षण’ दिया जाना आप पसंद नहीं करते, उन्हें संविधान के अनुसार प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए आपके पास कौन-सा बेहतर वैकल्पिक उपाय है? भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो इसके लिए आरक्षण का ही उपाय किया गया है।
मीडिया का दुरुपयोग करने से बचें यदि आप भारतीय संविधान और लोकतंत्र में आस्था रखते हैं तो आपको आरक्षण के उस प्रावधान को लागू किए जाने का समर्थन करना चाहिए जिसे भारत की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार भारतीय संविधान के उपबंधों के दायरे में लागू करना चाह रही हो। यदि आपकी आस्था संविधान और लोकतंत्र में नहीं है तो फिर यह ध्यान रखिए कि आप आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान का विरोध भी इसीलिए कर पा रहे हैं क्योंकि भारतीय संविधान और लोकतंत्र ने ही आपको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया है। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस्तेमाल के मुख्य माध्यम प्रेस और मीडिया पर अपने वर्चस्व की बदौलत यदि आप सरकार को संविधान के विपरीत दिशा में चलाने की कोशिश करना चाह रहे हों तो यह कोशिश आपको बहुत मंहगी पड़ सकती है, क्योंकि प्रेस और मीडिया का सारा कारोबार जिन पाठकों और दर्शकों के भरोसे पर टिका हुआ है उनका बहुमत संवैधानिक प्रावधानों का इस तरह मजाक बनाए जाते देखना पसंद नहीं करेगा और उनसे विमुख हो जाएगा। मीडिया के लोगों को इसकी बानगी उस दिन देखने को मिली जब एन.डी.टी.वी. द्वारा आरक्षण के मुद्दे पर आयोजित परिचर्चा में शामिल होने आए दर्शकों में से पिछड़े वर्ग के बहुत-से युवाओं ने कार्यक्रम के एकपक्षीय संचालन के विरोध में कार्यक्रम का बीच में ही बहिष्कार कर दिया और स्टूडियो से बाहर चले गए। बरखा दत्त ने इस घटना का जिक्र हिन्दुस्तान टाइम्स में संपादकीय पृष्ठ पर छपे अपने आलेख में भी किया। जो मीडिया जनमत का प्रतिनिधित्व नहीं करे और जब थोड़े से सवर्ण पत्रकार स्वयं को भारत का भाग्य विधाता समझकर अपने जातिगत स्वार्थ की पूर्ति और मिथ्या अभिमान की संतुष्टि के लिए संवैधानिक प्रावधानों और लोकतांत्रिक व्यवस्था का मजाक बनाने की कोशिश करें तो न केवल वे अपनी विश्वसनीयता गँवा देंगे, बल्कि जनता का बहिष्कार भी झेलने के लिए बाध्य हो जाएंगे। यदि आप वाकई आरक्षण के प्रावधान को लागू होने नहीं देना चाहते हैं तो मीडिया का गलत इस्तेमाल करने के बजाय आपको लोकतांत्रिक चुनाव के जरिए संसद में बहुमत हासिल करना चाहिए और संविधान में संशोधन करके आरक्षण के प्रावधान को हटा देना चाहिए।
क्या हो सकता है आरक्षण का विकल्प आरक्षण का एक कारगर विकल्प हमारे राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने सुझाया कि प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में जितनी सीटें आरक्षित की जा रही हों, कुल सीटों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ा दी जानी चाहिए ताकि गैर-आरक्षित श्रेणी के लिए पहले की तरह अवसर उपलब्ध रहें। इस सुझाव का व्यापक स्वागत हुआ। सीटों की संख्या जितनी बढ़ाई जा सके उतनी बेहतर है ताकि अधिक से अधिक लोगों को उच्च शिक्षा हासिल करने का मौका मिल सके। आदर्श स्थिति तो वह होगी जिसमें हर शिक्षार्थी को पढ़ने को मौका मिले और हर बेरोजगार को रोजगार मिले। लेकिन चूंकि प्रत्याशी अधिक होते हैं और अवसरों की उपलब्धता काफी कम होती है, इसलिए प्रतियोगिता आयोजित कराई जाती है ताकि जो सबसे योग्य हों उन्हें ही सीमित अवसरों का लाभ मिल सके। लेकिन असमान सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता कदापि नहीं हो सकती। भारत में अभी तक ऐसी व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई है जिसमें किसी प्रतियोगिता के आयोजन से पहले हर प्रत्याशी को उसकी तैयारी के लिए समान सुविधा और समान परिस्थिति उपलब्ध हो सके। आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था में कृष्ण और सुदामा अब एक साथ नहीं पढ़ा करते और कोई कृष्ण अब किसी सुदामा का मित्र नहीं होता। यदि आप आरक्षण के प्रावधान को समाप्त करना चाहते हैं तो पहले आप ऐसी व्यवस्था विकसित कीजिए ताकि किसी प्रतियोगिता में भाग लेने वाले हर प्रतियोगी को समान सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि उपलब्ध हो सके।
क्या हैं योग्यता के मायने जब आप योग्यता की बात करते हैं और प्रतियोगिता के आयोजन के द्वारा उसका निर्धारण किए जाने की वकालत करते हैं तो पहली बात यह कि प्रतियोगिता का संचालन और योग्यता का निर्धारण करना भी आपके ही हाथों में रहा है, और आपने इसमें आज तक ईमानदारी नहीं दिखाई है। विशेषकर साक्षात्कारों के आधार पर योग्य प्रत्याशी का चयन किए जाने में पारदर्शिता सुनिश्चित करने की कोई व्यवस्था नहीं होती। सचाई तो यह है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बहुत से प्रत्याशियों को संवैधानिक उपबंधों के बावजूद आरक्षण के लाभ से लंबे समय तक वंचित ही रखा गया, क्योंकि जिन पदाधिकारियों के अधिकार-क्षेत्र में उन उपबंधों को लागू करने का दायित्व था, वे चाहते नहीं थे कि आरक्षित पदों पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोग भर्ती किए जाएँ। इसलिए वे फाइलों पर यह दर्ज करते रहे कि आरक्षित वर्गों के ‘उपयुक्त’ उम्मीदवार उपलब्ध नहीं होने के कारण उनके स्थान पर सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों की भर्ती कर ली गई। ऐसी नियुक्तियों के मामले में जो भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार चलता रहा, उसे उस दौर में सरकारी सेवा में रह चुका हर व्यक्ति जानता है। इस बारे में काफी विरोध होने पर बाद में ऐसे स्पष्ट प्रावधान किए गए ताकि आरक्षित रिक्त पदों को सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों से नहीं भरा जा सके। प्रतियोगिता के जरिए योग्यता के निर्धारण की प्रक्रिया का मुख्य आधार ‘पदानुक्रम’ (Hierarchy) और ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ (Survival of the fittest) का सिद्धांत है। लेकिन आपने प्रतियोगिता के बजाय वर्ण-व्यवस्था के आधार पर पिछले हजारों वर्षों से योग्यता और श्रेष्ठता को अपना जन्मजात अधिकार समझकर समाज के बहुसंख्यक वर्गों को अपने अधीन बनाए रखा। प्रतियोगिता पर आधारित ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ (Survival of the fittest) के सिद्धांत पर अमल करते हुए पहले तुर्कों-मुगलों ने और बाद में अंग्रेजों ने आपके जन्मजात अधिकार को चुनौती दी और आपकी योग्यता और श्रेष्ठता तब धूल चाटने लगी। तब आपमें से अधिकांश अवसरवादी लोग मुगलों और अंग्रेजों की चाटुकारिता में लग गए और जब आजादी मिलने का समय आया तो चूहे की तरह कूदकर सत्ता और सरकार में शामिल हो गए। भारत का स्वतंत्रता संघर्ष तो मुख्य रूप से पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों ने लड़ा, लेकिन उसके नेतृत्व पर सवर्ण वर्ग के नेताओं ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया।
सर्वोदय और आरक्षण आजादी मिलने के बाद पहली बार भारतीय संविधान में ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ के स्थान पर सर्वोदय के सिद्धांत को कार्यान्वित किया गया, हालाँकि बात हमारे यहाँ सदियों से ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की होती रही है। भारतीय लोकतंत्र का आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व पर आधारित सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना है। लोकतांत्रिक भारत में इस आधार पर किसी को प्रतिष्ठा और अवसर की समानता से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह आपसे कम योग्य है। यदि कोई फिलहाल आपसे कम योग्य है तो उसकी संभावना का विकास कीजिए और उसे अपने बराबर की प्रतिष्ठा और अवसर दीजिए ताकि वह आपसे स्वस्थ प्रतियोगिता कर सकने में सक्षम बन सके। “प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।” हर मानव में विकास करने की असीम संभावना छिपी होती है, उस संभावना का पता लगाइए और उसका विकास करने का अवसर और माहौल दीजिए। भारतीय संविधान में दलित और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान इसीलिए किया गया है। जब पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं में आरक्षण दिया जाने लगा तो आपने कहा कि नौकरी में आरक्षण मत दो, उन्हें पढ़ाई-लिखाई की सुविधा दो ताकि पहले वे योग्य हो जाएँ, उसके बाद रोजगार प्राप्त करें। अब जब पढ़ाई-लिखाई के मामले में आरक्षण दिए जाने की बात उठी तो आप कहते हैं कि यह गलत हो रहा है, योग्यता का गला घोंटा जा रहा है और शिक्षा का स्तर बिगाड़ा जा रहा है। अब आप उच्च शिक्षा में आरक्षण का विरोध कर रहे हैं। संविधान लागू होने के बाद 40 वर्ष तक आपलोगों ने ऐसा कुछ क्यों नहीं किया ताकि पिछड़े वर्गों को आरक्षण की जरूरत नहीं पड़ती। जब संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के साथ-साथ सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े अन्य वर्गों को भी आगे लाने के लिए विशेष उपाय किए जाने की बात कही गई तो उनपर अमल क्यों नहीं किया गया। सच बात यह थी कि आपकी नीयत नहीं थी उन्हें बराबरी का हक़ देने की। जब उनमें राजनीतिक और सामाजिक चेतना का विकास हुआ तो वे लोकतांत्रिक और संवैधानिक तरीकों से अपना हक़ हासिल करने की चेष्टा में लगे हैं।
सामाजिक न्याय और राजनीतिक मजबूरी यह ठीक है कि 1990 में मंडल आयोग की कुछ सिफारिशों को लागू करके कुछ राजनेताओं ने अपनी राजनीति खूब चमकाई। उसी के बाद सामाजिक न्याय का मुद्दा हर राजनीतिक दल की ज़बान पर चढ़ा। पिछड़े वर्गों का पहली बार ऐसा ध्रुवीकरण हुआ कि वह दलित वर्ग से भी बड़ा वोट बैंक बनकर उभरा जिसको अपने पाले में करना सत्ता हासिल करने की ख्वाहिश रखने वाले हर राजनीतिक दल की मजबूरी हो गई। हालाँकि दोनों बड़े राजनीतिक दल -- कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी सामाजिक न्याय की राजनीति को आत्मसात नहीं कर पाए। लेकिन पिछड़े डेढ़ दशक में इन दोनों राजनीतिक दलों को भलीभाँति अनुभव हो गया कि सामाजिक न्याय के मुद्दे को छोड़कर भारतीय राजनीति में सत्ता हासिल कर पाना संभव नहीं है। भारतीय जनता पार्टी ने मंडल की काट के लिए कमंडल के अस्त्र को आजमाया, लेकिन वह अधिक दिनों तक कारगर साबित नहीं हो पाया। कांग्रेस पार्टी ने आर्थिक ‘सुधारों’ और निजीकरण के द्वारा भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा के जरिए विकास के सिद्धांत को स्थापित करने की रणनीति अपनाई। लेकिन उसे मालूम है कि इससे चुनाव जीते नहीं जा सकते, इसलिए उसे भी मजबूर होकर शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण और निजी क्षेत्रों में आरक्षण के मुद्दे को अपनाना पड़ा। वामपंथी पार्टियाँ आर्थिक न्याय की राजनीति पर जोर दिए जाने की वकालत करती रही, लेकिन सत्ता से जुड़े रहने के बावजूद ठोस धरातल पर वे इस दिशा में कुछ भी कारगर प्रयास नहीं कर सकीं। जो चरमपंथी वामपंथी पार्टियाँ थी उनलोगों ने नक्सलवाद के रूप में आर्थिक न्याय को हासिल करने के लिए एक ऐसी राह पकड़ ली, जो लोकतंत्र और संविधान के ही विपरीत दिशा में काम करता है।
स्थायी समाधान आरक्षण का स्थायी विकल्प यही हो सकता है कि आप सबके लिए पर्याप्त अवसर पैदा कर दें ताकि किसी को आरक्षण देने की नौबत ही नहीं आए। दूसरा समाधान यह कि व्यक्ति अपनी योग्यता और अभिरुचि के अनुसार चाहे जो भी वैध रोजगार करे और उसकी आमदनी चाहे जितनी कम हो, उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा और जीवन के लिए उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित की जाए। प्रकृति ने मनुष्यों में प्रतिभा, क्षमता और अभिरुचि की विविधता प्रदान की है, लेकिन मनुष्यों ने उस विविधता को पदानुक्रम का पैमाना बना लिया है। जब तक पदानुक्रम की मानसिकता समाप्त नहीं होती, तब तक आरक्षण का प्रावधान भी जारी रहेगा।
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