जैसा आपमें से कईयों ने देखा है कि परिचर्चा में मैंने एक विषय शुरू किया जिसमें कई लोगों ने ये बातें कहीं कि वे पर्यावरण बचाने में क्या योगदान करते हैं, और क्या करना चाहते हैं। ग्लोबल वार्मिंग जैसे मुद्दे पर कुछ मिथक और कुछ शंकाएं भी हैं तो मुझे लगा कि मैं इस मुद्दे पर कुछ अपने विचार रखूँ।
१ ग्लोबल वार्मिंग के संबंध में डाटा कम है, और एक प्रकार का भ्रामक धंधा है ये। आई पी सी सी कि ताज़ा रिपोर्ट में सबसे महत्वपूर्ण बात ये बात कही गयी है कि अब हमें मॉडल कि ज़रूरत नहीं है, बल्कि हमारे पास जमीनी आंकडें मौजूद हैं। इस बारे में ज्यादा बहस करने से पहले आप ये समाचार पढ़ सकते हैं।
२ इंसानी गतिवीधियों और कार्बन डाई ऑक्साइड कि बढती मात्रा का संबंध। इस बारे में जो सबसे बड़ी बात कही जाती है, वो ये है कि ज्वालामुखियों और समुद्र से जो कार्बन डाई ऑक्साइड निकलती है वो इंसानी गतिविधियों से निकलने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड से कई गुना ज्यादा होती है। ये बात सौ फी सदी सच है लेकिन प्राकृतिक माध्यमों से निकलने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड, प्राकृतिक माध्यमों से दुबारा सोख ली जाती है। ऐसा इंसानी स्रोतों से निकलने वाली गैस के साथ नहीं है।
३ इंसानी गतिविधियों से निकलने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड बहुत कम है। यह बात भी सौ फी सदी सच है, लेकिन पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड कि मात्र बहुत ही कम है, और इसलिये इसमें होने वाली थोड़ी घट बढ़ भी इस नाज़ुक संतुलन को बिगाड़ सकती है। इसी बात को अगर आगे बढ़ायें तो ये सर्वविदित तथ्य है कि फोसिल फुएल्स के जो अनगिनत स्रोत हैं धरती पर वे इसलिये बनें कि वातावरण में पहले कार्बन डाई ऑक्साइड कि मात्रा अधिक थी और अत्यधिक पेड़ पौधों के कारण ही ये संतुलन बदला। कई लाखों सालों में ये प्रक्रिया हुई, और जब ये पेड़ पौधे धरती में लाखों सालों तक अत्यधिक तापमान में रहे तो पेट्रोलियम के पदार्थ में बदले। अब सीधी सी बात ये है लाखों साल में बने यह पेट्रोलियम अगर हम २-३०० साल में फूंक दें तो पृथ्वी का वातावरण कैसा होगा?
४ कार्बन डाई ऑक्साइड और बढ़ते तापमान का कोई संबंध नहीं है इस बात पर बहुत बहस हो चुकी है और चालू है, लेकिन ये सीधा सा गणित है कि पृथ्वी के पर्यावरण में बदलाव घातक सिद्ध होगा। वैसे आई पी सी सी कि फरवरी कि रिपोर्ट में ऐसा साफ साफ कहा गया है कि ये संबंध एकदम सीधा है।
५ ग्लोबल वार्मिंग के नाम पर किये गए व्यक्तिगत स्तर के प्रयास कोई खास महत्व नहीं रखते पृथ्वी पर करीब ९ अरब लोग हैं। यदि हर व्यक्ति अपने द्वारा उत्सर्जित की गयी कार्बन डाई ऑक्साइड (और अन्य प्रदूषक) को प्रति वर्षा १० किलो कम कर दे तो पूरी पृथ्वी पर करीब ९ करोड़ टन गैस का उत्सर्जन हम कम कर सकते हैं. इसके अलावा बड़े स्तर पर जो प्रयास होने चाहिऐ वो अलग।
६ ये मुद्दा ज़रूरत से ज्यादा पीटा जा चुका है। ऐसा लगता है कई बार खास कर उन्हें जो इस संबंध में प्रयास कर रहे हैं, लेकिन यदि आप ध्यान से समाज और साथ के लोगों को देखें तो आपको समझ आएगा कि अभी भी करीब ९०-९५ प्रतिशत लोग रिसाइकल नहीं करते हैं, और संसाधनों का प्रयोग ठीक से नहीं करते हैं। यदि आपको इस बारे में कोई शक हो तो एक हफ्ते हर दिन अपने द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं की सूची बनायें, और उन चीजों को छाँटें जो आपने बिल्कुल बेकार प्रयोग की या आप रिसाइकल कर सकते थे, तो आपको इस बात का एहसास होगा।
७ और भी गम है ज़माने में ये बात बिल्कुल सही है, और हर मुद्दे को महत्व दिया जाना चाहिऐ। लेकिन अधिकतर मुद्दे व्यक्तिगत स्तर पर हल करने पड़ते हैं, मगर उसको प्रेरणा कि ज़रूरत लगातार रहती है। अब एड्स का मुद्दा ही देखिए, यदि लोग अपने परिवार में और बच्चों को इस बारे में जानकारी नहीं देंगे तो ये मुद्दा हल नहीं हो सकता, गन्दी राजनीति कि बात देखिए तो ये तभी हल होगी जब तक ज्यादा ज्यादा से लोग राजनीति में रूचि नहीं लेते। ये सच है कि और भी गम है ज़माने में, और हमें चाहिऐ कि सब तरफ ध्यान दें, लेकिन एक बार में एक ही मुद्दे कि बात होती है। मसलन, इस चिट्ठे को आप ग्लोबल वार्मिंग के संबंध में पढ़ रहे हैं और मैं अगर अफ्रीका कि भूखमरी कि बात चालू कर दूं तो मैं और आप भटक जायेंगे, और कोई भी मुद्दा नहीं हल होगा।
८ यदि ये ग्लोबल वार्मिंग और मानव गतिविधियों का संबंध सच नहीं हुआ तो? इस बात कि सम्भावना लगभग नहीं के बराबर है। ग्लोबल वार्मिंग हो रही है इस बारे में कोई दो राय नहीं। फिर भी अगर ये बात साबित भी हो गयी कि (०.०००१%) मानवीय गतिविधिया इसके लिए जिम्मेदार नहीं है, तो भी इस बारे में किये आपके प्रत्येक प्रयास सार्थक होंगे। फोसिल फुएल खतम होंगे, ये सबको पता है, इसलिये हमें ना खतम होने वाले उर्जा के संसाधनों का प्रयोग करना ही पड़ेगा, और जितना जल्दी करें अच्छा है। वैसे भी छत पर पड़ते सूरज की रोशनी का प्रयोग ज्यादा समझदारी भरा है, बजाय ५००० मील दूर से मंगाई गयी उर्जा से। फोसिल फुएल से सिर्फ कार्बन डाई ऑक्साइड नहीं, कई हानिकारक पदार्थ भी निकलते हैं और इन पर निर्भरता कम करना, समझदारी ही होगी। जो पदार्थ प्राकृतिक रुप से नष्ट नहीं हो सकते, उनका प्रयोग ना करना मेरे ख़्याल से उचित हो होगा।
संसाधनों का न्यूनतम और समझदारी भरा प्रयोग विश्व की और समस्याओं को भी कम करेगा। इस बारे में फिर कभी...
राग
लोग घर में कितनी बर्बादी करते हैं |
6 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छा लिखा है । इस विषय पर सोचने के लिए अब समय नहीं बचा है । अब समय आ गया है कि हम सब अपने अपने तरीके से बरबादी न करें और अपने संसार को बचाएँ ।
घुघूती बासूती
बेहद दिलचस्प और संजीदा विषय है. यह हिन्दी में पढ़कर ज्यादा आसानी से समझ आ गया. मिथक भी टूटे. मैं अपनी दौड़ती-भागती ज़िंदगी के बीच पर्यावरण संतुलन के लिए कुछ करना चाहता हूं. एक आम आदमी किस तरह से अपना छोटा सा योगदान दे सकता है. व्यवहारिक तरीक़े से मुझे समझाएं. मैं आभारी रहूंगा. एक बार फिर इस लेख के लिए आपको धन्यवाद भैया.
नेक काम कर रहे हैं भाई आप.. हम लोग किस अंध कूप में गिर रहे हैं इस विषय में चेताने की.. शिक्षा देने की बड़ी ज़रूरत है.. आप की जानकारी से हमें लाभ हुआ है.. और जानने की भूख है कि हम कैसे अपने पर्यावरण को बचा सकते हैं..
लेख का महत्व पहचानने का शुक्रिया। आशा है कि आप सब परिचर्चा में योगदान देंगे।
'हैं और भी गम जमाने में'
मुद्दा यह है कि किस गम को प्राथमिकता दी जाए। जो लोग दूसरी समस्याओं का उल्लेख यहाँ करते हैं वे शुतुरमुर्ग की तरह अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ रहे हैं। इस समस्या के लिए जनजागृति और सामूहिक प्रयासों की महती आवश्यकता है।
ग्लोबल वार्मिंग के दूरगामी परिणाम बहुत भयावह होने वालें हैं। हमने देर कर दी तो स्थिति संभालना मुश्किल हो जाएगी। मेरा शहर इन्दौर, मध्यप्रदेश के मालवा प्रांत में स्थित है आज से 15 से 20 वर्ष पहले यहाँ हरियाली और पानी की कोई कमी नहीं थी। पेड़ों के विनाश के चलते आज जनवरी से जलसंकट गहराने लगता है। मई-जून में शहरों बस्तियों में लड़ाईयाँ भी हो जाती हैं, ऐसी लड़ाई जिसमें पानी के लिए खून बहाया गया है, तलवारें चली हैं और कई बार मौत भी हो गई है। यही घटना जब व्यापक होगी तो इसका बड़ रूप युद्ध ही होगा। चंद धनाड्य लोग विकट गर्मी और जलसंकट में भी ऊँचे दामों पर पानी खरीद सकते हैं परंतु आम जनता क्या करे?
वैश्विक गर्मी के बढ़ते प्रकोप से जलपायु परिवर्तन के कारण भयंकर विपदाएँ आ रही हैं। भारती के पूर्व तटवर्ती इलाका लगभग मूमध्यसागरीय इलाके जैसा बदलता जा रहा है। रोज दोपहर तक तेज गर्मी, तीसरे/चौथे प्रहर तेज आँधी, चक्रवात और फिर उसके बाद वर्षा... अनेक पेड़ों का उखड़ना, बिजली के खम्भों का उखड़ना... घण्टों बिजली गायब रहना... दूसरे दिन और तेज गर्मी बढ़ना... असह्य उमस... रोजमर्रा की बातें होने लगीं है... विशेष कर 1998 में आए महातूफान से विध्वस्त ओड़िशा प्रदेश में...
इसके कारणों में से एक है... पूर्वी तट से 5-6 सौ कि.मी. दूर मुक्त क्षेत्र सागर के ऊपर ओजोन परत में एक बड़ा छेद... कुछ विद्वानों के अनुसार जिसका कारण वहाँ विभिन्न राष्ट्रों द्वारा बमों, मिजाइलों के परीक्षण हैं... मानव अपने लिए कब्र खोद रहा है? प्रलय को स्वयं आमन्त्रित कर रहा है?
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