Wednesday, February 14, 2007

मुझे चाय भी नहीं बनानी आती...

जाने कितनी बार एसा सुना है। अमरीका में भारत से आने वाले कई छात्रों के मुँह से एसा सुनने को मिलता है। भारत में भी कई बार जान पहचान में एसा सुना है। सोच कर लगता है कि हमारे माँ बाप ने बड़ा भला किया जो हमें घर के सारे काम कराए और सिखाए। मेरा मानना है कि जीवन में जितना खाना खाना आना जरूरी है, उतना ही खाना बनाना भी। इस लेख में मैं इस साधारण किंतु महत्वपूर्ण मुद्दे की तरफ ध्यान दिलाना चाहूँगा।

कई बार माता पिता अत्यधिक प्रेम में अपनी संतान (लड़का या लड़की) को घर के काम काज बिलकुल नहीं सिखाते, जिसमें खाना बनाना, सफाई, घर ठीक रखना आदि आते हैं। एसे बच्चों को जब आत्मनिर्भर होना पड़ता है तो उनकी बड़ी मुसीबत होती है। खाना बनाना ना आने के कारण, इन्हें अक्सर जंक फूड पर निर्भर होना पड़ता है। मैंने 6 महीने में लोगों को इस कारण बुरी तरह मोटाते देखा है।

खाना बनाना आ भी जाए तो बर्तन साफ करने का काम इतना लगता है कि खाना ना ही बनाएं तो अच्छा। इतने पर घर की सफाई तो लगता है कि हो ही नहीं सकती। मूत्रालय में फफूँदी तक जम जाती है, बर्तन तब तक नहीं धुलते जब तक खाना सड़ ना जाए और कीड़े ना पड़ने लगें (ये अतिशयाक्ति नहीं है), गंदे संदे अंग वस्त्र (अंडर गार्मेंट्स) दुबारा पहनने पड़ते हैं। अमरीका में तो खासकर अपने सारे काम स्वयं करने पड़ते हैं। इन सबके ऊपर समय पर बिल देना, नहीं तो क्रेडिट हिस्टरी खराब, स्वास्थ्य बीमा खत्म हो जाए तो अलग मुसीबत।

मैं समझता हूँ कि माँ बाप को बच्चों को ये सारे काम समय रहते सिखाने चाहिए और अच्छे से सिखाने चाहिए, ताकि बच्चे ना सिर्फ ये सब काम कर सकें, बल्कि तरीके से और जल्दी भी कर सकें। जिन लोगों को लिए ये सब काम कोई बड़ी बात नहीं होते और वे ये काम आसानी से कर लेते हैं, वे अपना बाकि ध्यान और समय पढ़ाई या और कामों में लगा सकते हैं।


अनुराग

7 टिप्पणियाँ:

अफ़लातून said...

ये श्रमसाध्य घरेलू काम लड़कों को भी करने चाहिए।घर में सिखाया जाय तब भी यह ध्यान दिया जाए कि ये तमाम काम लड़के भी सीखें और पति बन जाने के बाद भी इन श्रमसाध्य कामों में से कुछ करते रहें।जीवन आनन्दमय तब ही रहेगा ।

ePandit said...

एकदम सही बात है। अगर कभी अकेला रहना पड़े तो इन बातों का महत्व समझ आता है, होटल-ढाबे की रोटी खाकर चार दिन में आदमी उब जाता है।

अनुराग श्रीवास्तव said...

ठीक है, अगली बार सिंगापुर आना तो मैं खाना बना कर खिलाऊंगा. प्लेटें मिल कर धो लेगे. मंज़ूर?!

ghughutibasuti said...

राग जी, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं । किन्तु यह समस्या अधिकतर लड़कों के सामने आती हैं । घर का काम इतना कठिन भी नहीं ,कि आसानी से न सीखा जा सके । कुछ घरों में बेटे अपने हाथ से पानी का गिलास भी नहीं लेते ।
घुघूती बासूती
ghughutibasuti.blogspot.com

Divine India said...

अनुराग भाई,
आपकी सोंच की भी दाद देता हूँ…बड़ी सच बात कही है…जब आप अपने परिवार से दूस चले जाते है तब इसका एहसास पूर्णत: हो जाता है…होटल का खाना कितने दिनों खाया जाया!!

Anonymous said...

रोज़मर्रा की बातों में छिपी गहराई को सुंदरता से चित्रित करते हैं आप. मां की छाया तो जीवन में मिली नहीं लिहाज़ा मैं सब कुछ बनाना सीख गया था. अब बना सकता हूं किंतु वक्त नहीं मिलता. शायद अगले साल तक फिर दोबारा पाककला के गुर दिखाऊं. कभी दिल्ली आओ तो हमारे हाथ का पका खाकर धन्य हो जाना हा हा. अपने इटली वाले रा.च. मिश्रा जी तो रोज़ खुद बनाते और खाते हैं. हम अकेले रहने वालों के साथ यही तो परेशानी है कि कि जो कच्चा-पक्का आता है बनाकर खा लेते हैं. घरेलू काम सभी को आना चाहिए वो चाहे खाना बनाना हो या बरतन-झाड़ू चौका पोछा.. सब कुछ. वो दिन दूर नहीं जब वैवाहिकी विज्ञापनों पर लिखा होगा. उम्र 28 साल, आय पांच अंको में गोरा, लंबा, गृहकार्य में दक्ष युवक के लिए वधु चाहिए .. हा हा

Raag said...

आप लोगों की टिप्पणियों का धन्यवाद। आप सब ही मुझसे सहमति रखते हैं इस मुद्दे पर। वैसे मेरे अनुभव से यह मुद्दा लड़कियों पर भी खूब आता है, कभी कभी लड़कों से ज्यादा। लेकिन चलिए इस प्रविष्टि से ये अच्छा है कि दिल्ली और सिंगापुर में खाने का पक्का इंतजाम हो गया है।