Thursday, August 10, 2006

करण जौहर का एक और तमाशा...

करण जौहर साहब फिर एक और एसे सिनेमा (कभी अलविदा ना कहना) के साथ आ रहे हैं जो पौने चार घंटे लंबा है (बाप रे बाप), उसमे लंबे-लंबे रोने धोने के सीन होंगे, जीवन से बड़े फ्रेम होंगे और काफी उपदेश होंगे। मेरी तो इच्छा पौने चार घंटे सुन के ही खत्म हो गई।

सिनेमा के बाद शाहरुख खान की बासी एक्टिंग की बड़ी तारीफ होगी, सारा का सारा मीडिया भी इसी में जुट जाएगा। आखिर करन जौहर सभी जगह पैसा लगाते जो हैं ;)। जी सिने अवार्ड में सारे के सारे अवार्ड इसी को मिलेंगे। शाहरुख खान सर्वोत्तम अभिनेता, बाकी सब को भी कुछ ना कुछ मिलेगा ही।

थोड़ा बहुत फिल्मफेयर में भी मिलेगा ही।

सोच रह हूँ कि मुझे इतना कैसे पता है...

संपादित- ये लीजिए मेरी बात सच करती एक दर्शक की टिप्पणी।
आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. तरन आदर्श जैसे समीक्षक पहले से ही गुणगान शुरू कर चुके हैं. बॉलीवुड में समीक्षकों के भी गुट हैं. (उदाहरण के लिए- सुभाष के. झा भूल के भी आमिर की तारीफ़ में कोई वाक्य नहीं लिख सकता.)फ़िल्म देखी. साढ़े तीन घंटे वाला प्रिंट था. लगा आराम से ढाई घंटे में काम चलाया जा सकता था. दो गाने तो सीधे-सीधे ठूंसे हुए लग रहे थे.एक्टिंग के नाम पर सिर्फ़ रानी की एक्टिंग से काम चलाइए. शाहरुख और प्रीटि ही नहीं, बल्कि अमिताभ की भी ओवरएक्टिंग है. अमिताभ एक छिछोरे पात्र की भूमिका में एक्टिंग करते हुए पहली बार अपने बेटे से पीछे छूट गए हैं. वो भी तब, जब सबको पता है अभिषेक ख़ुद कितने बड़े अभिनेता हैं! फ़िल्म में शाहरुख़ ख़ान भूल जाते हैं कि उन्हें कितना लंगड़ाना है- मतलब, कभी झटके-मार लंगड़ा बन जाते हैं, कभी हल्का लंगड़ापन ले के चलते हैं, तो कभी-कभी कोई लंगड़ापन नहीं. (होठों को थरथरा के भर्राई आवाज़ में बोलने मात्र को एक्टिंग मानते हों, तब तो शाहरूख़ ने ज़बरदस्त एक्टिंग की है.)कहानी बिल्कुल ही बेतुकी तो है ही, पटकथा में अनेक झोल है. शाहरुख़ ख़ान फ़िल्म के शुरू में फ़ुटबॉलर हैं और निर्देशक की बलिहारी एक उदाहरण देखें- शाहरुख़ को पेनाल्टी किक लेना है तो वह 10-12 मीटर दूर से(क्रिकेट के तेज़ गेंदबाज़ जैसी तेज़ी से) भाग कर आते हैं गेंद को ठोकर मानने के लिए! अभी-अभी विश्व कप फ़ुटबॉल के दर्जनों मैच देखे थे- किसी देश के किसी खिलाड़ी ने किक लेने के लिए इतनी लंबी दौड़ नहीं लगाई!अच्छी चीज़ों में से हैं- दो गाने, ख़ास कर वो गाना जिसमें ढोलक का बेहतरीन प्रयोग है. और न्यूयॉर्क की ज़बरदस्त सिनेमोटोग्राफ़ी!

7 टिप्पणियाँ:

रवि रतलामी said...

बाप रे बाप ! इतनी लंबी फ़िल्म! कौन देखेगा!!

हाल राजकपूर का मेरा नाम जोकर जैसा न हो जाए!!!!

हिंदी ब्लॉगर/Hindi Blogger said...

आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. तरन आदर्श जैसे समीक्षक पहले से ही गुणगान शुरू कर चुके हैं. बॉलीवुड में समीक्षकों के भी गुट हैं. (उदाहरण के लिए- सुभाष के. झा भूल के भी आमिर की तारीफ़ में कोई वाक्य नहीं लिख सकता.)

फ़िल्म देखी. साढ़े तीन घंटे वाला प्रिंट था. लगा आराम से ढाई घंटे में काम चलाया जा सकता था. दो गाने तो सीधे-सीधे ठूंसे हुए लग रहे थे.

एक्टिंग के नाम पर सिर्फ़ रानी की एक्टिंग से काम चलाइए. शाहरुख और प्रीटि ही नहीं, बल्कि अमिताभ की भी ओवरएक्टिंग है.

अमिताभ एक छिछोरे पात्र की भूमिका में एक्टिंग करते हुए पहली बार अपने बेटे से पीछे छूट गए हैं. वो भी तब, जब सबको पता है अभिषेक ख़ुद कितने बड़े अभिनेता हैं! फ़िल्म में शाहरुख़ ख़ान भूल जाते हैं कि उन्हें कितना लंगड़ाना है- मतलब, कभी झटके-मार लंगड़ा बन जाते हैं, कभी हल्का लंगड़ापन ले के चलते हैं, तो कभी-कभी कोई लंगड़ापन नहीं. (होठों को थरथरा के भर्राई आवाज़ में बोलने मात्र को एक्टिंग मानते हों, तब तो शाहरूख़ ने ज़बरदस्त एक्टिंग की है.)

कहानी बिल्कुल ही बेतुकी तो है ही, पटकथा में अनेक झोल है. शाहरुख़ ख़ान फ़िल्म के शुरू में फ़ुटबॉलर हैं और निर्देशक की बलिहारी एक उदाहरण देखें- शाहरुख़ को पेनाल्टी किक लेना है तो वह 10-12 मीटर दूर से(क्रिकेट के तेज़ गेंदबाज़ जैसी तेज़ी से) भाग कर आते हैं गेंद को ठोकर मानने के लिए! अभी-अभी विश्व कप फ़ुटबॉल के दर्जनों मैच देखे थे- किसी देश के किसी खिलाड़ी ने किक लेने के लिए इतनी लंबी दौड़ नहीं लगाई!

अच्छी चीज़ों में से हैं- दो गाने, ख़ास कर वो गाना जिसमें ढोलक का बेहतरीन प्रयोग है. और न्यूयॉर्क की ज़बरदस्त सिनेमोटोग्राफ़ी!

Anonymous said...

बहुत अच्छा किया कि आपने बता दिया और अगर ना भी बताते तो कोई बात नही, हमे कौनसा ऐसी लम्बी फिल्में देखना है :) - यार हम तो फिल्म का मतलब मनुरंजन समझते हैं कि चलो एक दो घंटे हंसो खुशी लूटो मगर ऐसी फिल्में तो हमारे पल्ले ही नही पडती

Amit Sachan said...

जिस तरह से कुच लोग इस लिये गलत है क्योकि वो बिना फ़िल्म देखे उसकी तारीफ़ करेगे । उसी तरह आप लोग उसका विरोध बिना देखे ही कर रहे है। वो दायी आख से काने है तो आप बायी आन्ख से ।

ळेकिन इस बात मे आप लोग बिल्कुल सही है कि फ़िल्म कुच्ह ज्यादा ही लम्बी बन पदी है । ळगता है निर्देशक को सम्पादन के 'क ख ग' सीख्नने पदेगे । अच्च्हे द्रश्य है तो उसका मतलब ये नही कि उन्हे फ़िल्म मे दाला ही जाये । फ़िल्म का प्रमुख उद्देश्य कहानी गधना होना चाहिये नाकि एक शहर की सुन्दरता केनवास पे उकेरना ।

खैर सभी सितारो का अभिनय तो अच्चा है । फ़िल्म् की प्रमुख् बात् यही है...और ये बात तो तय है कि आप फ़िल्म तो ज़रूर देख्नेगे । बस देख्नना ये है कि कब बुद्धू लौथ् कर घर आते है । :-)

(मेरी हिन्दी के लिये मुझे माफ़ करियेगा । ये मेरी हिन्दी नही बल्कि मै ही अपने सोफ़्तवेयर से ज्यादा काम नही करता हू । आशा करता हू कि समय के साथ थीक हो जायेगा । वो 'मुन्नाभाई' कह गये है ना ....मै आपको चान्द दिखा रहा हू इसलिये आप मेरी उन्गली मे कमी माफ़ कर दिजिये :-))

-अमित सचान

Raag said...

Sachan Saab!

Jahan tak movie dekhne ki baat hai to meri ichha 3hour 45 minute sun ke mar gayi, doosri baat Shahrukh ko waise hi ghise pite romantic rule mein dekh ke, teesri baat yeh ki movie ka screenplay us writer ne likha hai jisne Fanaa bhi likhi hai. Kis ummed se main paisa barbaad karoon??

Anonymous said...

आपकी ये पोस्ट अपनी मुफ़्त बंटने वाली इस पत्रिका में डाल रहा हूँ। कोई आपत्ती हो तो बताईएगा। धन्यवाद।

Raag said...

मंगला साब कोई गल नहीं।