Monday, August 28, 2006

भारतीय रेडियो कार्यक्रम वर्जीनिया टेक में

मित्रों।

वर्जीनीया टेक (यू एस का एक बढ़िया शिक्षण संस्थान) के आधिकारिक रेडियो स्टेशन पर मैं प्रति शनिवार कार्यक्रम प्रस्तुत करता हूँ, जिसमें गीत संगीत के अलावा कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस भी होती है। इस बार का मुद्दा है आरक्षण। आप इसे इंटरनेट पर भी सुन सकते हैं, चाहे देस, या परदेस। अधिक जानकारी के लिए देखें http://wuvtindian.blogspot.com

अनुराग

Sunday, August 20, 2006

हिन्दुस्तान का असमंजस ः भगवान भी मूर्ख बनाने आ पहुँचे

अब और क्या कहें? वहाँ दिल्ली मे हमारी सरकार आरक्षण का बिल केबिनट की बैठक में पास करने जा रही है और इधर भारतवासियों को मूर्तियों को दूध पिलाने से फुरसत नहीं है। मुझ् लगता है कि भारत की अधिकतर जनता इतनी हताश हो चुकी है कि उसका भरोसा अब सिर्फ इन टोने टोटकों पर रह गया है। अब भगवान के धरती पर आने की ही प्रतीक्षा है।

सबसे मजे़दार तो ये समाचार चैनल है जो कि सबसे गैर ज़रूरी खबर का जोर शोर से प्रचार करते हैं। अब ये खबर तो इतनी बेकार है कि और लिखने की इच्छा कर ही नहीं रही। बस God Bless India

अनुराग

Thursday, August 10, 2006

करण जौहर का एक और तमाशा...

करण जौहर साहब फिर एक और एसे सिनेमा (कभी अलविदा ना कहना) के साथ आ रहे हैं जो पौने चार घंटे लंबा है (बाप रे बाप), उसमे लंबे-लंबे रोने धोने के सीन होंगे, जीवन से बड़े फ्रेम होंगे और काफी उपदेश होंगे। मेरी तो इच्छा पौने चार घंटे सुन के ही खत्म हो गई।

सिनेमा के बाद शाहरुख खान की बासी एक्टिंग की बड़ी तारीफ होगी, सारा का सारा मीडिया भी इसी में जुट जाएगा। आखिर करन जौहर सभी जगह पैसा लगाते जो हैं ;)। जी सिने अवार्ड में सारे के सारे अवार्ड इसी को मिलेंगे। शाहरुख खान सर्वोत्तम अभिनेता, बाकी सब को भी कुछ ना कुछ मिलेगा ही।

थोड़ा बहुत फिल्मफेयर में भी मिलेगा ही।

सोच रह हूँ कि मुझे इतना कैसे पता है...

संपादित- ये लीजिए मेरी बात सच करती एक दर्शक की टिप्पणी।
आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. तरन आदर्श जैसे समीक्षक पहले से ही गुणगान शुरू कर चुके हैं. बॉलीवुड में समीक्षकों के भी गुट हैं. (उदाहरण के लिए- सुभाष के. झा भूल के भी आमिर की तारीफ़ में कोई वाक्य नहीं लिख सकता.)फ़िल्म देखी. साढ़े तीन घंटे वाला प्रिंट था. लगा आराम से ढाई घंटे में काम चलाया जा सकता था. दो गाने तो सीधे-सीधे ठूंसे हुए लग रहे थे.एक्टिंग के नाम पर सिर्फ़ रानी की एक्टिंग से काम चलाइए. शाहरुख और प्रीटि ही नहीं, बल्कि अमिताभ की भी ओवरएक्टिंग है. अमिताभ एक छिछोरे पात्र की भूमिका में एक्टिंग करते हुए पहली बार अपने बेटे से पीछे छूट गए हैं. वो भी तब, जब सबको पता है अभिषेक ख़ुद कितने बड़े अभिनेता हैं! फ़िल्म में शाहरुख़ ख़ान भूल जाते हैं कि उन्हें कितना लंगड़ाना है- मतलब, कभी झटके-मार लंगड़ा बन जाते हैं, कभी हल्का लंगड़ापन ले के चलते हैं, तो कभी-कभी कोई लंगड़ापन नहीं. (होठों को थरथरा के भर्राई आवाज़ में बोलने मात्र को एक्टिंग मानते हों, तब तो शाहरूख़ ने ज़बरदस्त एक्टिंग की है.)कहानी बिल्कुल ही बेतुकी तो है ही, पटकथा में अनेक झोल है. शाहरुख़ ख़ान फ़िल्म के शुरू में फ़ुटबॉलर हैं और निर्देशक की बलिहारी एक उदाहरण देखें- शाहरुख़ को पेनाल्टी किक लेना है तो वह 10-12 मीटर दूर से(क्रिकेट के तेज़ गेंदबाज़ जैसी तेज़ी से) भाग कर आते हैं गेंद को ठोकर मानने के लिए! अभी-अभी विश्व कप फ़ुटबॉल के दर्जनों मैच देखे थे- किसी देश के किसी खिलाड़ी ने किक लेने के लिए इतनी लंबी दौड़ नहीं लगाई!अच्छी चीज़ों में से हैं- दो गाने, ख़ास कर वो गाना जिसमें ढोलक का बेहतरीन प्रयोग है. और न्यूयॉर्क की ज़बरदस्त सिनेमोटोग्राफ़ी!

Tuesday, August 08, 2006

भारत सरकार के जालस्थल की शिकायत।

मैने भारत सरकार के जालस्थलों के बारे में एक शिकायत दर्ज कराई थी। उनका जवाब यहाँ पढ़ें।

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अनुराग